अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 60
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
491
अघ्न्ये॒ प्र शिरो॑ जहि ब्रह्म॒ज्यस्य॑ कृ॒ताग॑सो देवपी॒योर॑रा॒धसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअघ्न्ये॑ । प्र । शिर॑: । ज॒हि॒। ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । कृ॒तऽआ॑गस: । दे॒व॒ऽपी॒यो: । अ॒रा॒धस॑: ॥१०.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अघ्न्ये प्र शिरो जहि ब्रह्मज्यस्य कृतागसो देवपीयोरराधसः ॥
स्वर रहित पद पाठअघ्न्ये । प्र । शिर: । जहि। ब्रह्मऽज्यस्य । कृतऽआगस: । देवऽपीयो: । अराधस: ॥१०.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
(अघ्न्ये) हे अवध्य ! [न मारने योग्य, प्रबल वेदवाणी] (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मचारियों के हानिकारक, (कृतागसः) अपराध करनेवाले, (देवपीयोः) विद्वानों के सतानेवाले, (अराधसः) अदानशील पुरुष के (शिरः) शिर को (प्र जहि) तोड़ डाल ॥६०॥
भावार्थ
जो मनुष्य बलवती वेदवाणी के विरुद्ध आचरण करे, उसको यथावत् दण्ड मिले ॥६०॥
टिप्पणी
६०−(अघ्न्ये) म० ५८। (प्र जहि) विनाशय (शिरः) मस्तकम् (ब्रह्मज्यस्य) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकरस्य (कृतागसः) कृतापराधस्य (देवपीयोः) म० १५। विदुषां हिंसकस्य (अराधसः) अ० ५।११।७। नास्ति राधो धनं यस्मात् तस्य। अदानशीलस्य ॥
विषय
छेदन....हिंसा.....आशरविनाश
पदार्थ
१. हे ब्रह्मगवि! तू (जीतम्) = हिंसाकारी पुरुष को (आदाय) = पकड़कर (अमुष्मिन् लोके) = परलोक में जीताय प्रयच्छसि उससे पीड़ित पुरुष के हाथों में सौंप देती है। यह ब्रह्मज्य अगले जीवन में उस ब्राह्मण की अधीनता में होता है। हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू (ब्राह्मणस्य) = इस ज्ञानी ब्राह्मण की (अभिशस्त्या) = हिंसा से उत्पन्न होनेवाले भयंकर परिणामों को उपस्थित करके (पदवी: भव) = मार्गदर्शक बन। तू ब्रह्मज्य के लिए (मेनि:) = वज्र (भव) = हो, शरव्या लक्ष्य पर आघात करनेवाले शरसमूह के समान हो, (आघात् अघविषा भव) = कष्ट से भी घोर कष्टरूप विषवाली बन । २. हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू इस (ब्रह्मज्यस्य) = ज्ञान के विघातक, (कृतागस:) = [कृतं आगो येन] अपराधकारी, (देवपीयो:) = विद्वानों व दिव्यगुणों के हिंसक, (अराधसः) = उत्तम कार्यों को न सिद्ध होने देनेवाले दुष्ट के (शिरः प्रजहि) = सिर को कुचल डाल। (त्वया) = तेरे द्वारा (प्रमूर्णम्) = मारे गये, (मृदितम्) = चकनाचूर किये गये, (दुश्चितम्) = दुष्टबुद्धि पुरुष को (अग्निः दहतु) = अग्नि दग्ध कर दे।
भावार्थ
ब्रह्मगवी का हिंसक पुरुष जन्मान्तर में ब्राह्मणों के वश में स्थापित होता है। हिंसित ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य का हिंसन करती है। हिसित ब्रह्मगवी से यह ब्रह्मज्य अग्नि द्वारा दग्ध किया जाता है।
भाषार्थ
(अघ्न्ये) हे अवध्य गोजाति ! (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण के जीवन को हानि पहुचाने वाले, (कृतागसः) पापी, (देवपीयोः) देवहिंसक, (अराधसः) आराधना हीन के (शिरः) सिर को (प्रजहि) काट दे, या उस के सिर पर प्रहार कर।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(अघ्न्ये) हे अधन्ये ! ब्रह्मगवि ! तू (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मघाती, (कृतागसः) अपराधकारी (देवपीयोः) देव, विद्वानों के हिंसक (अराधसः) अनुदार, दुष्ट पुरुष के (शिरः) शिर को (प्र जहि) कुचल डाल।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
Inviolable Divine Cow, break the head of the violator of divine law, tormentor of the Brahmana trustee of divine knowledge and freedom of speech, perpetrator of sin, re viler of divinities and the wholly impious.
Translation
O inviolable one, smite forth the head of the Brahmanscather that has committed offence, of the god-reviler, the ungenerous.
Translation
Let this cow who is unkillable strike off the head of the man who causes injury to Brahman , has committed sin, is sacrilegious and withholder of munificence.
Translation
O Vedic knowledge! break thou the head of him who oppresses the learned, is criminal,blasphemer of the sages and niggard.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६०−(अघ्न्ये) म० ५८। (प्र जहि) विनाशय (शिरः) मस्तकम् (ब्रह्मज्यस्य) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकरस्य (कृतागसः) कृतापराधस्य (देवपीयोः) म० १५। विदुषां हिंसकस्य (अराधसः) अ० ५।११।७। नास्ति राधो धनं यस्मात् तस्य। अदानशीलस्य ॥
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