अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 52
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
154
आ॒ददा॑नमाङ्गिरसि ब्रह्म॒ज्यमुप॑ दासय ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽददा॑नम् । आ॒ङ्गि॒र॒सि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । उप॑ । दा॒स॒य॒ ॥१०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
आददानमाङ्गिरसि ब्रह्मज्यमुप दासय ॥
स्वर रहित पद पाठआऽददानम् । आङ्गिरसि । ब्रह्मऽज्यम् । उप । दासय ॥१०.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
(आङ्गिरसि) हे अङ्गिरा [परमज्ञानी परमेश्वर] से उपदेश की गयी [वेदवाणी !] (आददानम्) [तुझे] छीननेवाले (ब्रह्मज्यम्) ब्रह्मचारियों के हानिकारक पर (उप सादय) चढ़ाई कर ॥५२॥
भावार्थ
जो जितेन्द्रिय वेदज्ञानी पुरुष निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, वे वेदविरुद्ध दोषों और शत्रुओं को नाश कर सकते हैं ॥५१, ५२॥
टिप्पणी
५१, ५२−(छिन्धि) भिन्धि (आ) समन्तात् (छिन्धि) (प्र) प्रकर्षेण (छिन्धि) (अपि) एव (क्षापय) म० ४४। नाशय (क्षापय)। (आददानम्। त्वां हरन्तम् (आङ्गिरसि) अ० ८।५।९। तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। अङ्गिरस्−अण्, ङीप्। हे अङ्गिरसा महाविदुषा परमेश्वरेणोपदिष्टे (ब्रह्मज्यम्) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकरम् (उप दासय) आक्रमेण गृहाण ॥
विषय
छेदन.....हिंसा.....आशरविनाश
पदार्थ
१. हे (आंगिरसि) = विद्वान् ब्राह्मण की शक्तिरूप वेदवाणि! तू (ब्रह्माज्यम्) = ज्ञान के ध्वंसक दुष्ट पुरुष को (छिन्धि) = काट डाल, (आच्छिन्धि) = सब ओर से काट डाल, (प्रच्छिन्धि) = अच्छी प्रकार काट डाल। (क्षापय क्षापय) = उजाड़ डाल और उजाड़ ही डाल। २. हे आंगिरसि! तू (हि) = निश्चय से (वैश्वदेवी उच्यसे) = सब दिव्य गुणोंवाली व सब शत्रुओं की विजिगीषावाली [दिव विजिगीषायाम्] कही जाती है। (आवृता) = आवृत कर दी गई-प्रतिबन्ध लगा दी गई तू (कृत्या) = हिंसा हो जाती है, (कूल्वजम्) = [कु+उल दाहे+ज] इस पृथिवी पर दाह को उत्पन्न करनेवाली होती है। तू ओषन्ती जलाती हुई, और (सम् ओषन्ती) = खूब ही जलाती हुई (ब्रह्मणो वज्र:) = इस ब्रह्मज्य के लिए ब्रह्म [परमात्मा] का वज्र ही हो जाती है। ३. (क्षुरपवि:) = छुरे की नोक बनकर (मृत्युः भूत्वा विधाव त्वम्) = मौत बनकर तू ब्रह्मज्य पर आक्रमण कर। इन (जिनताम्) = ब्रह्मज्यों के (वर्च:) = तेज को (इष्टम्) = यज्ञों को (पूर्तम्) = वापी, कूप, तड़ागादि के निर्माण से उत्पन्न फलों को (आशिषः च) = और उन ब्रह्मज्यों की सब कामनाओं को तू (आदत्से) = छीन लेती है-विनष्ट कर डालती है।
भावार्थ
नष्ट की गई ब्रह्मगवी इन ब्रह्मज्यों को ही छिन कर डालती है। वैश्वदेवी होती हुई भी यह ब्रह्मज्यों के लिए हिंसा प्रमाणित होती है। यह उनके सब पुण्यफलों को छीन लेती |
भाषार्थ
(आङ्गिरसि) अङ्गो=अङ्गी अर्थात् शरीर के लिये रस-प्रदायिनि ओषधिरूप हे गोजाति ! (आददानम्) गोरक्षा का अधिकार छीनने वाले, (ब्रह्मज्यम्) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण-नेता के जीवन को हानि पहुंचाने वाले का (उप दासय) क्षय कर।
टिप्पणी
[आङ्गिरसि = ओषधियाँ ४ प्रकार की होती हैं। आथर्वणी; आङ्गिरसीः, देवीः, तथा मनुष्यजाः। यथा "आङ्गिरसीराथर्वणीदंवीर्मनुष्यजा उत। ओषधयः प्रजायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि॥ अथर्व ११।४।१६); तथा "या रोहन्त्याङ्गिरसीः पर्वतेषु समेषु च। ता नः पयस्वतीः शिवा ओषधीः सन्तु नो हृदे" (अथर्व० ८।७।१७)। गोजाति का रसीला दूध ओषधिरूप है। गोजाति स्वरक्षकों द्वारा निज-घातकों का क्षय करती है। राजा की मृत्यु के पश्चात् राजपक्ष के लोगों के नेता को ब्रह्मज्य जानना चाहिये। आददानम्, यथा आदत्ते (मन्त्र ४६), अथवा आ+दाप् लवने]।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
हे (अङ्गिरसि) अङ्गिरस = ब्राह्मण विद्वान् की शक्ति रूपे ! दुष्ट पुरुष को (छिन्धि) काट डाल, (आच्छिन्धि) सब ओर से काट डाल, (प्रच्छिन्धि) अच्छी प्रकार काट डाल। (क्षापय क्षापय) उजाड़ डाल, उजाड़ डाल। (आददानम् उपदासय) ब्रह्मग के लेने और नाश करने हारे को विनाश कर डाल।
टिप्पणी
‘आदध्याम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
O Spirit of nature, assertive force of life, destroy the violator of Brahma, destroy the killer of Divine Cow, divine knowledge and the divine freedom of the Brahmana’s speech.
Translation
O daughter of Angiras, exhaust thou the Brahman-scather, that takes to himself.
Translation
Let the power of the fire pervading all the objects, destroy the injurer of Brahman who takes the cow for his own purpose.
Translation
Destroy, O Vedic knowledge, revealed by God! the wretch who robs and wrongs the learned.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५१, ५२−(छिन्धि) भिन्धि (आ) समन्तात् (छिन्धि) (प्र) प्रकर्षेण (छिन्धि) (अपि) एव (क्षापय) म० ४४। नाशय (क्षापय)। (आददानम्। त्वां हरन्तम् (आङ्गिरसि) अ० ८।५।९। तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। अङ्गिरस्−अण्, ङीप्। हे अङ्गिरसा महाविदुषा परमेश्वरेणोपदिष्टे (ब्रह्मज्यम्) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकरम् (उप दासय) आक्रमेण गृहाण ॥
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