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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 63
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    602

    ब्र॑ह्म॒ज्यं दे॑व्यघ्न्य॒ आ मूला॑दनु॒संद॑ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । दे॒वि॒ । अ॒घ्न्ये॒ । आ । मूला॑त् । अ॒नु॒ऽसंद॑ह: ॥११.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मज्यं देव्यघ्न्य आ मूलादनुसंदह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मऽज्यम् । देवि । अघ्न्ये । आ । मूलात् । अनुऽसंदह: ॥११.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 63
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मचारी के हत्यारों कें दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली] (अघ्न्ये) हे अवध्य ! [न मारने योग्य, प्रबल वेदवाणी] (ब्रह्मज्यम्) ब्रह्मचारियों के हानिकारक को (आ मूलात्) जड़ से (अनुसंदह) जलाये जा ॥६३॥

    भावार्थ

    राजा को उचित है कि वेदव्यवस्था के अनुसार ब्रह्मचारीयों कें हत्या करने वालें अधर्मी एवं वेदविरोधी को कारावास का दण्ड देकर समाज के उत्थान हेतु अग्नि के भाँति नष्ट करें॥६३, ६४॥

    (यह इसलिए है क्योंकि सन्यासी का सन्यास लेने के पश्चात उनके संरक्षण हेतु कोई परिजन नहीं होतें।)

    टिप्पणी

    ६३, ६४−(ब्रह्मज्यम्) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकारकम् (देवि) हे दिव्यगुणवति (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये (आ मूलात्) मूलमभिव्याप्य (अनुसंदह) निरन्तरं भस्मीकुरु (यथा) येन प्रकारेण (अयात्) अय गतौ−लेट्। गच्छेत् (यमसदनात्) सांहितिको दीर्घः। राज्ञो न्यायगृहात् (पापलोकान्) पापिनां देशान्। कारागाराणि (परावतः) अ० ३।४।५। दूरगतान् ॥

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    विषय

    व्रशचन....प्रव्रशचन....संव्रशचन

    पदार्थ

    १. हे (देवि) = शत्रुओं को पराजित करनेवाली (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू (ब्रह्मज्यम्) = इस ब्राह्मणों के हिंसक को-ज्ञान- विनाशक को (वृश्च) = काट डाल, (प्रवृश्च) = खूब ही काट डाल, संवृश्च सम्यक् काट डाल दह इसे जला दे, प्रदह प्रकर्षेण दग्ध कर दे और संदह सम्यक् दग्ध कर दे। (आमूलात् अनुसंदह) = जड़ तक जला डाल। २ यथा जिससे यह (ब्रह्मज्य यमसादनात्) = [अयं वै यमः याऽयं पवते] इस वायुलोक से (परावतः) = सुदूर (पापलोकान्) = पापियों को प्राप्त होनेवाले घोर लोकों को (अयात्) = जाए। मरकर यह ब्रह्मज्य वायु में विचरता हुआ पापियों को प्राप्त होनेवाले लोकों को (असुर्य लोकों को जोकि घोर अन्धकार से आवृत हैं) प्राप्त होता है। २. एवा इसप्रकार हे (देवि अघ्न्ये) = दिव्यगुणसम्पन्न अहन्तव्ये वेदवाणि! (त्वम्) = तू इस (ब्रह्मज्यस्य) = ब्रह्मघात करनेवाले दुष्ट के (स्कन्धान्) = कन्धों को (शतपर्वणा वज्रेण) = सौ पर्वोंवाले- नोकों, दन्दानोंवाले वज्र से (प्रजहि) = नष्ट कर डाल । (तीक्ष्णेन) = बड़े तीक्ष्ण (क्षुरभृष्टना) = (भृष्टि Frying) भून डालनेवाले छुरे से शिरः प्र ( जहि ) सिर को काट डाल ।

    भावार्थ

    ब्रह्मज्य का इस हिंसित वेदवाणी द्वारा ही व्रश्चन व दहन कर दिया जाता है।

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    भाषार्थ

    (अघ्न्ये देवि) हे अवध्य गौ देवि ! (ब्रह्मज्यम्) गोरक्षक ब्राह्मण के जीवन को हानि पहुंचाने वाले को (आ मूलात्) मूल से लेकर (अनु सं दह) सम्यक् जला दे।

    टिप्पणी

    [मन्त्रों में बार-बार अघ्न्या पद के कथन द्वारा गोरक्षकों को सचेत किया जा रहा है कि गौ किसी के लिये भी वध्या नहीं। इस की रक्षा होनी ही चाहिये। गौ को देवी कह कर इस की दिव्यता को सूचित किया है, क्योंकि गौ प्रजा के लिये महोपकारी प्राणी है]।

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (देवि अघ्न्ये) दिव्य स्वभाव वाली देवि अघ्न्ये ! कभी न मारे जाने योग्य ब्रह्मगवी आप (ब्रह्मज्यम्) ब्रह्म, ब्राह्मण की हानि करने हारे पुरुष को (वृश्च प्र वृक्ष) काट और अच्छी तरह से काट और (सं वृश्च) खूब अच्छी तरह से काट। (देह, प्र देह, सं देह) जला, अच्छी तरह से जला और खूब अच्छी तरह से जला डाल। उसको तो (आमूलाद्) जड़ तक (अनु सं दह) फूंक डाल।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    Divine, Inviolable, bum the violator of divine knowledge and freedom of speech unto the root.

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    Translation

    The Brahman-scather, O divine inviolable pay do thou burn up all the way from the root.

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    Translation

    Let this unkillable powerful cow burn from root to him who injures the Brahmana.

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    Translation

    Consume thou, even from the root, the sages’ tyrant, O inviolable Vedic knowledge!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६३, ६४−(ब्रह्मज्यम्) म० १५। ब्रह्मचारिणां हानिकारकम् (देवि) हे दिव्यगुणवति (अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये (आ मूलात्) मूलमभिव्याप्य (अनुसंदह) निरन्तरं भस्मीकुरु (यथा) येन प्रकारेण (अयात्) अय गतौ−लेट्। गच्छेत् (यमसदनात्) सांहितिको दीर्घः। राज्ञो न्यायगृहात् (पापलोकान्) पापिनां देशान्। कारागाराणि (परावतः) अ० ३।४।५। दूरगतान् ॥

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