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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 34
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    60

    असं॑ज्ञा ग॒न्धेन॒ शुगु॑द्ध्रि॒यमा॑णाशीवि॒ष उद्धृ॑ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑म्ऽज्ञा । ग॒न्धेन॑ । शुक् । उ॒ध्द्रि॒यमा॑णा । आ॒शी॒वि॒ष: । उध्दृ॑ता ॥८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असंज्ञा गन्धेन शुगुद्ध्रियमाणाशीविष उद्धृता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असम्ऽज्ञा । गन्धेन । शुक् । उध्द्रियमाणा । आशीविष: । उध्दृता ॥८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    (गन्धेन) [वेदवाणी के] नाश से (असंज्ञा) असंगति [संसार में फूट] होती है, वह (उद्ध्रियमाणा) उखाड़ी जाती हुई (शुक्) शोक और (उद्धृता) उखाड़ी गयी (आशीविषः) फण में विषवाले [साँप के समान] है ॥३४॥

    भावार्थ

    वेदविद्या के नाश से संसार में फूट पड़कर बड़े-बड़े क्लेश होते हैं ॥३४॥

    टिप्पणी

    ३४−(असंज्ञा) असङ्गतिः। भेदः (गन्धेन) गन्ध अर्दने−अच्। नाशेन (शुक्) शोकः। (उद्ध्रियमाणा) उत्पाट्यमाना (आशीविषः) आङ्+अश भोजने−अच्, ङीप्। आश्यां फणे विषं यस्य सः। महाविषयुक्तः सर्पः (उद्धृता) उत्पाटिता ॥

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    विषय

    अघ, अभूति, पराभूति

    पदार्थ

    १. यह ब्रह्मगवी (पच्यमाना) = हाँडी आदि में पकाई जाती हुई (अघम्) = पाप व दुःख का कारण होती है और पक्वा पकाई होने पर (दुःष्वप्न्यम्) = अशुभ स्वप्नों का कारण बनती है। (पर्याक्रियमाणा) = कड़छी से हिलाई-डुलाई जाती हुई मूल (बर्हणी) = मूल का ही नाश करनेवाली होती है और (पर्याकृता) = कड़छी से लोटी-पोटी गई यह ब्रह्मगवी (क्षिति:) = विनाश-ही-विनाश हो जाती है। २. (गन्धेन) = [गन्धनम् हिंसनम्] हिंसन से व पकाये जाने के समय उठते हुए गन्ध से यह (असंज्ञा) = अचेतनता को पैदा करती है। (उद्ध्रियमाणा) = कड़छी से ऊपर निकाली जाती हुई यह (शुक्) = शोकरूप होती है, उद्धता-ऊपर निकाली गई होने पर (आशीविष:) = सर्प ही हो जाती है सर्प के समान प्राणहर होती है। (उपह्रियमाणा) = पकाई जाकर परोसी जाती हुई यह (अभूति:) = अनैश्वर्य होती है। (उपहता) = परोसी हुई होकर (पराभूति:) = यह पराभव का कारण बनती है।

    भावार्थ

    पीड़ित की गई तथा भोग का साधन बनाई गई ब्रह्मगवी 'पाप, अशुभस्वप्न, मूलोच्छेद, विनाश, अचेतनता, शोक, अनैश्वर्य व पराभव' का कारण बनती है-सर्प के समान विनाशक हो जाती है।

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    भाषार्थ

    [पकते गोमांस की] (गन्धेन) गन्ध से [गन्ध लेने वाले की] (असंज्ञा) अज्ञता सूचित होती है। (उद्ध्रियमाणा) पके मांसरूप में आग से उठाई जाती गौ (शुक्) परिणाम में शोक जतिका होती है। (उद्धृता) उठाई गई (आशीविषः) विषैले सर्पवत् होती।

    टिप्पणी

    [असंज्ञा="सम्यक् ज्ञान का अभाव", कि गोमांस दुष्परिणामी है, और रोग द्वारा शोकोत्पादक है। गोमांस विष के समान है, आशीविष है, आशी अर्थात् फण में है विष जिस के = विषैला सांप]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    By smell, she is delirium, being taken up, she is sorrow, taken up, she is cobra poison.

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    Translation

    Discovered by smell; pain when being taken up a poison-snake when taken up.

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    Translation

    By smell she causes unconsciousness, and being lifted up she is grief. Completely drawn up is like snake with poison in fang.

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    Translation

    It causes discord when it is suppressed, grief when it is being ousted It acts as a serpent with poison in its fang when it has been ousted.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३४−(असंज्ञा) असङ्गतिः। भेदः (गन्धेन) गन्ध अर्दने−अच्। नाशेन (शुक्) शोकः। (उद्ध्रियमाणा) उत्पाट्यमाना (आशीविषः) आङ्+अश भोजने−अच्, ङीप्। आश्यां फणे विषं यस्य सः। महाविषयुक्तः सर्पः (उद्धृता) उत्पाटिता ॥

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