अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - आर्ची निचृत्पङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
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तानि॒ सर्वा॒ण्यप॑ क्रामन्ति ब्रह्मग॒वीमा॒ददा॑नस्य जिन॒तो ब्रा॑ह्म॒णं क्ष॒त्रिय॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठतानि॑ । सर्वा॑णि । अप॑ । क्रा॒म॒न्ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽग॒वीम् । आ॒ऽददा॑नस्य । जि॒न॒त: । ब्रा॒ह्म॒णम् । क्ष॒त्रिय॑स्य ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
तानि सर्वाण्यप क्रामन्ति ब्रह्मगवीमाददानस्य जिनतो ब्राह्मणं क्षत्रियस्य ॥
स्वर रहित पद पाठतानि । सर्वाणि । अप । क्रामन्ति । ब्रह्मऽगवीम् । आऽददानस्य । जिनत: । ब्राह्मणम् । क्षत्रियस्य ॥६.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
(तानि सर्वाणि) ये सब (ब्रह्मगवीम्) वेदवाणी को (आददानस्य) छीननेवाले, (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण [ब्रह्मचारी] को (जिनतः) सतानेवाले (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय के (अप क्रामन्ति) चले जाते हैं ॥११॥
भावार्थ
जो राजा के कुप्रबन्ध से वेदविद्या प्रचार से रुक जाती है, अविद्या के फैलने से वह राजा और उसका राज्य सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ॥७-१०॥ १−मन्त्र ११ का मिलान ऊपर मन्त्र ५, ६ से करो ॥११॥ २−मन्त्र ७-११ महर्षि दयानन्दकृत, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदोक्तधर्मविषय पृष्ठ १०२-३ में तथा संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्यख्यात हैं ॥
टिप्पणी
११−(तानि) पूर्वोक्तानि (सर्वाणि) समस्तानि (अप क्रामन्ति) अपगच्छन्ति। विनश्यन्ति। अन्यत् पूर्ववत्−म० ५ ॥
विषय
ओज व तेज आदि का विनाश
पदार्थ
१. (ओजः च तेज: च) = ओज और तेज, (सहः च बलं च) = शत्रुमर्षणशक्ति और बल, (वाक् च इन्द्रियं च) = वाणी की शक्ति तथा वीर्य, (श्री: च धर्म: च) = श्री और धर्म। इसीप्रकार (ब्रह्म च क्षत्रं च) = ज्ञान और बल, (राष्ट्रं च विश: च) = राज्य और प्रजा, (त्विषिः च यश: च) = दीप्ति व यश, (वर्चः च द्रविणं च) = रोगनिरोधक शक्ति [Vitality] और कार्यसाधक धन तथा आयुः च रूपं च-दीर्घजीवन व सौन्दर्य, (नाम च कीर्तिश्च) = नाम और यश, (प्राणः च अपान: च) = प्राणापानशक्ति [बल का स्थापन व दोष का निराकरण करनेवाली शक्ति], (चक्षुः च श्रोत्रं च) = दृष्टिशक्ति व श्रवणशक्ति तथा इनके साथ (पयः च रस: च) = गौ आदि का दूध और ओषधियों का रस, (अन्नं च अन्नाद्यं च) = अन्न और अन्न खाने का सामर्थ्य, (प्रातं च सत्यं च) = भौतिक क्रियाओं का ठीक समय व स्थान पर होना तथा व्यवहार में सत्यता, (इष्टं च पूर्त च) = यज्ञ तथा 'वापी, कूप व तड़ाग' आदि का निर्माण, (प्रजा च पशव: च) = सन्तान व गौ आदि पशु। २. (तानि सर्वाणि) = ये सब उस (क्षत्रियस्य) = क्षत्रिय के (अपकामन्ति) = दूर चले जाते हैं व विनष्ट हो जाते हैं जोकि (ब्रह्मगवीम् आददानस्य) = ब्रह्मगवी [वेदधनु] का छेदन करता है और (ब्राह्मणां जिनत:) = ब्राह्मण को पीड़ित करता है।
भावार्थ
ब्रह्मगवी का छेदन करनेवाला व ब्राह्मण को पीड़ित करनेवाला क्षत्रिय ओज व तेज आदि को विनष्ट कर बैठता है।
भाषार्थ
वे सब अपक्रान्त हो जाते हैं, अर्थात् इन सब से वञ्चित कर दिया जाता है, जो क्षत्रिय अर्थात् राजा, ब्रह्मवेत्ता अर्थात् वेदवेत्ता की ब्रह्मप्रोक्त वेदवाणी का अपहरण करता, और इस द्वारा ब्रह्मवेत्ता के जीवन को हानि पहुंचाता है ॥११॥
टिप्पणी
[१ से ११ तक के मन्त्रों का सार यह है कि वेदवाणी ब्रह्मप्रोक्त है और ब्रह्म के अनुग्रह द्वारा परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति को प्राप्त होती है, वैदिक ज्ञान और प्राकृतिक नियमों में परस्पर विरोध नहीं। वेदविद्या समृद्धिकारिणी है, इस में इहलोक, परलोक तथा ब्रह्मलोक का वर्णन है। वैदिक पदों द्वारा मन्त्रों की रचना ब्रह्म ने की है, और ब्राह्मण वेदवाणी का रक्षक है। जो क्षत्रिय (राजा) वेदवाणी के प्रसार तथा प्रचार में प्रतिबन्ध उपस्थित करता है वह पदच्युत हो कर राज्यलक्ष्मी से वञ्चित हुआ, नानाविध कष्ट भोगता है]।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(ब्राह्मणं जिनतः) ब्राह्मण पर बलात्कार करने हारे और उससे (ब्रह्मगवीम् आददानस्य) ब्रह्मगवी, ब्रह्म = वेदवाणी को बलात् छीनने वाले (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय का (ओजः च तेजः च) ओज, प्रभाव और तेज, (सहः च बलम् च) ‘सहः’ दूसरे को पराजित करने का सामर्थ्य और बल, सेनाबल (वाक् च इन्द्रियम् च) वाणी और इन्द्रियें, (श्रीः च धर्मः च) लक्ष्मी और धर्म, (ब्रह्म च क्षत्रं च) ब्रह्मबल, ब्राह्मणगण, क्षात्रबल उसके सहायक क्षत्रिय, (राष्ट्रं च दिशः च) उसका राष्ट्र और उसके अधीन वैश्य प्रजाएं (त्विषिः च यशः च) उसकी त्विट् कान्ति दीप्ति और यश, ख्याति (वर्चः च द्रविणम् च) वर्चस्, वीर्य और धन (आयुः च रूपं च) आयु और रूप (नाम च कीर्त्तिः च) नाम और कीर्ति, (प्राणः च अपानः च) प्राण और अपान, (चक्षुः च श्रोत्रं च) चक्षु, दर्शनशक्ति और श्रोत्र, श्रवणशक्ति। (पयः च रसः च) दूध और जल (अन्नं च, अन्नाद्यं च) अन्न और अन्न के भोग करने का सामर्थ्य (ऋतं च सत्यं च) ऋत और सत्य (इष्टं च पूर्वं च) इष्ठ, पूर्त, यज्ञ याग और कूपतड़ादि धर्म के सब कार्य और (प्रजा च पशवः च) प्रजाएं और पशु (तानि सर्वाण) वे सब (अपक्रामन्ति) उसको छोड़ कर चले जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं।
टिप्पणी
‘अपक्रामन्ति क्षत्रियस्य’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। सप्त पर्यायसूक्तानि। ब्रह्मगवी देवता। तत्र प्रथमः पर्यायः। १, ६ प्राज्यापत्याऽनुष्टुप, २ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप्, ३ चतुष्पदा स्वराड् उष्णिक्, ४ आसुरी अनुष्टुप्, ५ साम्नी पंक्तिः। षडृचं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
All these forsake that Kshatriya who seizes the Divine Cow and deprives the Brahmana of his rightful knowledge and free speech.
Translation
All these depart from the Ksatriya who takes to himself the Brahman-cow, who scathes the Brahman.
Translation
All these of the Kshatriya, king who takes the Gavi of Brhmana and oppresses him, depart from him.
Translation
All these blessings of a Kshatriya depart from him when he oppresseth the Brahman and usurps the Vedic knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(तानि) पूर्वोक्तानि (सर्वाणि) समस्तानि (अप क्रामन्ति) अपगच्छन्ति। विनश्यन्ति। अन्यत् पूर्ववत्−म० ५ ॥
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