अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 31
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - याजुषी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
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वि॒षं प्र॒यस्य॑न्ती त॒क्मा प्रय॑स्ता ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षम् । प्र॒ऽयस्य॑न्ती । त॒क्मा । प्रऽय॑स्ता ॥८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
विषं प्रयस्यन्ती तक्मा प्रयस्ता ॥
स्वर रहित पद पाठविषम् । प्रऽयस्यन्ती । तक्मा । प्रऽयस्ता ॥८.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
वह [वेदवाणी] (प्रयस्यन्ती) क्लेश में पड़ती हुई [वेदविरोधी को] (विषम्) विष, और (प्रयस्ता) क्लेश में डाली गयी (तक्मा) जीवन के कष्टदायक [ज्वररूप] होती है ॥३१॥
भावार्थ
तपस्वी वेदानुगामियों का दुःखदायी पुरुष अज्ञान बढ़ाकर घोर नरक में पड़ता है ॥३१॥
टिप्पणी
३१−(विषम्) (प्रयस्यन्ती) प्रयासं क्लेशं सहमाना (तक्मा) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकारी ज्वरो यथा (प्रयस्ता) आयासं क्लेशं प्राप्ता ॥
विषय
वैर......असमृद्धि......पाप......पारुष्य
पदार्थ
१. 'एक बलदस राजन्य इस ब्रह्मगवी का हनन करता है, और परिणामतः राष्ट्र में किस प्रकार का विनाश उपस्थित होता है' इसका यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार में वर्णन किया गया है। कहते हैं कि यह ब्रह्मगवी (विकृत्यमाना) = विविध प्रकार से छिन्न की जाती हुई। अपने विद्वेषियों के लिए (वैरम्) = वैर को उत्पन्न करती है, ये ब्रह्मगवी का विकृन्तन करनेवाले परस्पर वैर-विरोध में लड़ मरते हैं। (विभाज्यमाना) = अंग-अंग काटकर आपस में बाँटी जाती हुई ब्रह्मगवी (पौत्राद्यम्) = पुत्र-पौत्र आदि को खा जानेवाली होती है। (ह्रियमाना) = हरण की जाती हुई यह (देवहेति:) = इन्द्रियों [इन्द्रियशक्तियों] की विनाशक होती है, और (हृता) = हरण की गई होने पर (व्यृद्धिः) = सब प्रकार की असमृद्धि का कारण बनती है। २. (अधिधीयमाना) = इस ब्रह्मण्य द्वारा अधिकार में रक्खी हुई-पूर्णरूप से प्रतिबद्ध-सी हुई-हुई (पाप्मा) = पाप के प्रसार का हेतु बनती है, (अवधीयमाना) = तिरस्कृत करके दूर की जाती हुई (पारुष्यम्) = क्रूरताओं को उत्पन्न करती है, अर्थात् इस स्थिति में राजा प्रजा पर अत्याचार करने लगता है। (प्रयस्यन्ती विषम्) = ब्रह्मज्य द्वारा कष्ट उठाती हुई विष के समान प्राणनाशक बनती है, (प्रयस्ता) = सताई हुई होने पर यह (तक्मा) = ज्वर ही हो जाती है।
भावार्थ
ब्रह्मगवी का छेदन व तिरस्कार राष्ट्र में 'वैर, अकालमृत्यु, इन्द्रियशक्ति-विनाश, असमृद्धि, पाप व पारुष्य' का कारण बनता है और विष बनकर ज्वरित करनेवाला होता है।
भाषार्थ
(प्रयस्यन्ती) पकाने के लिये प्रयास की जाती हुई गौ (विषम्) विषरुप है, (प्रयस्ता१) और प्रयास की गई (तक्मा२,) कष्टप्रद ज्वर रूप है।
टिप्पणी
[प्रयस्यन्ती = प्र + यस्] (प्रयत्ने) + शतृ। मन्त्र ३२ में "पच्यमाना और पक्वा" पदों की दृष्टि से पकाने से पूर्व-किये जाने वाले प्रयास, अर्थात् मांस को देगची में डालना और आग के जलाने आदि का वर्णन मन्त्र में अभिप्रेत है। मन्त्र में दर्शाया है कि गोमांस खाना विषरूप है, तथा कष्ट प्रद ज्वर का उत्पादक३ है] [१. प्रयस्त = Seasoned, dressed with condiments (आप्टे), अर्थात् मसाले लगाना। २. तकिकृच्छ्र जीवने। अभिप्राय है "कष्टप्रद ज्वर", (अथर्व० ५॥२२॥१४)। ३. बौद्ध धार्मिक ग्रन्थ "सूतनिपात" के एक प्रकरण के सन्दर्भ का अंग्रेजी में अनुवाद निम्नलिखित हैं— Like unto a mother, a father, a brother and other relatives, the cows are our best friends, There were formerly three diseases--desire, hunger and decay, but from the slaying of cattle there came ninety-eight"। अर्थात् माता-पिता, भाई तथा अन्य सम्बन्धियों की तरह गौएं भी हमारे श्रेष्ठ सखा है। पूर्व काल में तीन ही रोग थे- इच्छा, भूख और क्रमिक ह्रास। परन्तु पशुघात के कारण ९८ रोग पैदा हो गए। इसी प्रकार चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के १० वें अध्याय में निम्नलिक्षित सन्दर्भ है। "गवां गौरवादौष्ण्याद सात्म्याद् शस्तोपयोगाच्चोपहताग्नीनामुपहतमनसामतीसारः पूर्वमुत्पन्नः"। अर्थात् गौ के मांस के भारी होने से, उष्ण और अस्वाभाविक होने से और उस के प्रयोग के अप्रशस्त होने से लोगों की जाठराग्नि और बुद्धिशक्ति मन्द हो गई, और अतिसार रोग उत्पन्न हो गया"।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(प्रयस्यन्ती) ब्रह्मगवी, ब्रह्मद्वेषी के द्वारा कष्ट उठाती हुई उसके लिये (विषम्) विष के समान प्राणनाशक है। (प्रयस्ता) अति कठिन कष्ट पाई हुई, सताई हुई वह (तक्मा) ज्वर के समान उसके जीवन को दुःखमय बना देनेहारी होती है।
टिप्पणी
‘प्रयच्छन्ती’ इति क्वचित।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवता च पूर्ववत्। २८ आसुरी गायत्री, २९, ३७ आसुरी अनुष्टुभौ, ३० साम्नी अनुष्टुप्, ३१ याजुपी त्रिष्टुप्, ३२ साम्नी गायत्री, ३३, ३४ साम्नी बृहत्यौ, ३५ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप, ३६ साम्न्युष्णिक्, ३८ प्रतिष्ठा गायत्री। एकादशर्चं चतुर्थं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
Dressed for preparation, she is poison, prepared, she is fever.
Translation
Poison when heating, takman when heated.
Translation
She when agitated is position and when given chastisement she is like fever.
Translation
It is deadly like poison to its foe, when it is opposed. It makes his life miserable when he torments it to the extreme.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३१−(विषम्) (प्रयस्यन्ती) प्रयासं क्लेशं सहमाना (तक्मा) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकारी ज्वरो यथा (प्रयस्ता) आयासं क्लेशं प्राप्ता ॥
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