अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 46
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - भुरिक्साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
67
य ए॒वं वि॒दुषो॑ ब्राह्म॒णस्य॑ क्ष॒त्रियो॒ गामा॑द॒त्ते ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ए॒वम् । वि॒दुष॑: । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । क्ष॒त्रिय॑: । गाम् । आ॒ऽद॒त्ते ॥९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
य एवं विदुषो ब्राह्मणस्य क्षत्रियो गामादत्ते ॥
स्वर रहित पद पाठय: । एवम् । विदुष: । ब्राह्मणस्य । क्षत्रिय: । गाम् । आऽदत्ते ॥९.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
(यः क्षत्रियः) जो क्षत्रिय (एवम्) ऐसे (विदुषः) जानकार (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारी की [हितकारिणी] (गाम्) वेदवाणी को (आदत्ते) छीन लेता है ॥४६॥
भावार्थ
जो राजा विद्वान् ब्रह्मचारियों को सताकर वेदविद्या को रोकता है, वह अज्ञान बढ़ने से अपना सर्वस्व और वंश नाश करके आप भी नष्ट हो जाता है ॥४५, ४६॥ (अपरापरणः) के (अपरा−परणः) के पदपाठ के स्थान पर (अ+पर+अपर−नः) मानकर हम ने अर्थ किया है ॥
टिप्पणी
४५, ४६−(अवास्तुम्) अगृहम् (एनम्) क्षत्रियम् (अस्वगम्) म० ४०। निर्धनम् (अप्रजसम्) अ० ९।२।३। अप्रजा−असिच्। असन्तानम् (करोति) (अपरापरणः) नञ्+पर+अपर−नः। लोमादिपामादि०। पा० ५।२।१००। इति बाहुलकाद् न प्रत्ययो मत्वर्थे। परं चापरं च द्वयोः समाहारः परापरम्, न तद्यस्यास्तीति अपरापरणः। प्राचीनार्वाचीनपुरुषरहितः (भवति) (क्षीयते) क्षियति। नश्यति (यः) (एवम्) अनेन प्रकारेण (विदुषः) जानतः (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारिणः (क्षत्रियः) (गाम्) वेदवाणीम् (आदत्ते) गृह्णाति ॥
विषय
वंशविनाश
पदार्थ
१. पीड़ित की गई ब्रह्मगवी (अस्य पितबन्धु छिनत्ति) = पैतृक सम्बन्धों को छिन्न कर डालती है, (मातृबन्ध पराभावयति) = मातृपक्षवालों को भी पराभूत करती है। यह (ब्रह्मगवी) = वेदवाणी यदि (क्षत्रियेण) = क्षत्रिय से (अपुन: दीयमाना) = फिर वापस लौटाई न जाए तो यह (ब्रह्मज्यस्य) = ब्रह्मघाती के (विवाहान्) = विवाहों को व (सर्वान् ज्ञातीन् अपि) = सब रिश्तेदारों को भी (क्षापयति) = नष्ट कर देती है। २. (यः) = जो (क्षत्रियः) = क्षत्रिय (एवं विदुषः ब्रह्मणस्य) = इसप्रकार ज्ञानी ब्राह्मण की (गाम् आदते) = इस ब्रह्मगवी को छीन लेता है, वह (अपरापरणः भवति) = सहायक से रहित हो जाता है अथवा पुराणों व नयों से रहित हो जाता है-सब इसका साथ छोड़ जाते हैं और (क्षीयते) = यह नष्ट हो जाता है। यह छिन्ना ब्रह्मगवी (एनम्) = इसको (अवास्तुम्) = घर-बार से रहित, (अस्वगम्) = [अ स्व ग] निर्धन व (अप्रजसम्) = सन्तानरहित (करोति) = कर देती है।
भावार्थ
छिन्ना ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य के सब वंश को ही समाप्त कर देती है।
भाषार्थ
(यः क्षत्रियः) जो क्षत्रिय राजा कि (एवम् विदुषः) इस प्रकार के विद्वान् (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ नेता की (गाम्) गौ अर्थात् गो जाति को [सुरक्षित करने के अधिकार को] (आदते) छीन लेता है।
टिप्पणी
[आदत्ते = आदित्यः कस्मात् आदत्ते भासं ज्योतिषाम् (नक्षत्राणाम्); निरु० २।४।१३।। १२ से ४६ तक के मन्त्रों में गोरक्षा का वर्णन हुआ है। क्षत्रिय अर्थात् राजा गोरक्षा नहीं चाहता। परन्तु ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ व्यक्ति गो जाति को ब्रह्म की राष्ट्रोपयोगी विशिष्ट सन्तान जान कर, और गो रक्षा को वेदानुकूल जान कर, गोरक्षान्दोलन करता है। परिणामतः क्षत्रिय राजा का हनन होता है। हत हो जाने पर उस की जो दशा होती है, उस का वर्णन ४७ से ७३ तक के मन्त्रों में हुआ है। गौ स्वस्थ हो या रुग्ण उसकी रक्षा करना और उस के मांस को न खाने देना- यह वैदिक धर्म है। इसके लिये देखो यजु० १३।४३; ३०।१७; ऋक् ८।१०१।१५; १०।८७।१६ तथा अथर्व० १।१६।४]।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (एवम्) इस प्रकार (विदुषः) विद्वान् (बाह्यणस्य) ब्राह्मण की (गाम्) ‘गौ’ को (क्षत्रियः) क्षत्रिय (आदत्ते) ले लेता है, वह ब्रह्मगवी (एनम्) उस को (अवास्तुम्) मकान रहित, (अस्वगम्) घरबाररहित और (अप्रजसम्) प्रजारहित (करोति) कर डालती है। और वह (अपरापरणः भवति) दूसरे किसी अपने पालन करने वाले सहायक से भी रहित हो, निसहाय हो जाता है और (क्षीयते) नाश को प्राप्त हो जाता, उजड़ जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवता च पूर्वोक्ते। ३९ साम्नी पंक्ति:, ४० याजुषी अनुष्टुप्, ४१, ४६ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप, ४२ आसुरी बृहती, ४३ साम्नी वृहती, ४४ पिपीलिकामध्याऽनुष्टुप्, ४५ आर्ची बृहती। अष्टर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
So does the guardian ruler suffer who robs the sagely Brahmana of knowledge and devotion to freedom of speech and misappropriates the Divine Cow unto himself and self-extinction.
Translation
Whatever Kshatriya takes to himself the cow of a Brahman who knoweth thus.
Translation
(This is the case with) Kshariya who takes for him the cow of learned Brahmana.
Translation
So shall it be with the Kshatriya who takes to himself the Vedic know-ledge of the learned Brahman.
Footnote
A King who puts obstacles in the way of a Brahman for advancing his knowledge,and takes possession of his treasure of books, is reduced to this plight, for want of free flow of Vedic teachings.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४५, ४६−(अवास्तुम्) अगृहम् (एनम्) क्षत्रियम् (अस्वगम्) म० ४०। निर्धनम् (अप्रजसम्) अ० ९।२।३। अप्रजा−असिच्। असन्तानम् (करोति) (अपरापरणः) नञ्+पर+अपर−नः। लोमादिपामादि०। पा० ५।२।१००। इति बाहुलकाद् न प्रत्ययो मत्वर्थे। परं चापरं च द्वयोः समाहारः परापरम्, न तद्यस्यास्तीति अपरापरणः। प्राचीनार्वाचीनपुरुषरहितः (भवति) (क्षीयते) क्षियति। नश्यति (यः) (एवम्) अनेन प्रकारेण (विदुषः) जानतः (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारिणः (क्षत्रियः) (गाम्) वेदवाणीम् (आदत्ते) गृह्णाति ॥
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