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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 22
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    111

    स॑र्वज्या॒निः कर्णौ॑ वरीव॒र्जय॑न्ती राजय॒क्ष्मो मेह॑न्ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒र्व॒ऽज्या॒नि: । कर्णौ॑ । व॒री॒व॒र्जय॑न्ती । रा॒ज॒ऽय॒क्ष्म: । मेह॑न्ती ॥७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वज्यानिः कर्णौ वरीवर्जयन्ती राजयक्ष्मो मेहन्ती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वऽज्यानि: । कर्णौ । वरीवर्जयन्ती । राजऽयक्ष्म: । मेहन्ती ॥७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    (मेहन्ती) [विद्वानों को] सींचती हुई और [वेदविरोधक के] (कर्णौ) दो विज्ञानों [अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात् तत्त्वज्ञान और मोक्षज्ञान] को (वरीवर्जयन्ती) सर्वथा रोकती हुई [वेदवाणी] [उसके लिये] (सर्वज्यानिः) सब हानि करनेवाले (राजयक्ष्मः) राजरोग [के समान] होती है ॥२२॥

    भावार्थ

    जब संसार में वेदों का विज्ञान बढ़ता है, तब पाखण्ड मत नष्ट हो जाता है, जैसे उपाय न करने पर राजरोग से रोगी का नाश हो जाता है ॥२२॥ इस मन्त्र का मिलान−अथर्व० १२।४।६। से करो ॥

    टिप्पणी

    २२−(सर्वज्यानिः) अ० ११।३।५५। वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। ज्या वयोहानौ−नि। सर्वहानिकरः (कर्णौ) अ० १२।४।६। कॄ विज्ञाने−न प्रत्ययो नित्। अभ्युदयनिःश्रेयसबोधौ (वरीवर्जयन्ती) वृजी वर्जने यङ्लुकि शतृ। भृशं वर्जयन्ती (राजयक्ष्मः) राजरोगः (मेहन्ती) सिञ्चती धार्मिकान् ॥

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    विषय

    क्षुरपवि----शीर्षक्ति

    पदार्थ

    १. (ईक्षमाणा) = अत्याचरित यह ब्रह्मगवी सहायता के लिए इधर-उधर झाँकती हुई (क्षुरपवि:) = [The point of a spear] छुरे की नोक के समान हो जाती है। यह अत्याचारी की छाती में प्रविष्ट होकर उसे समास कर देती है। (वाश्यमाना) = सहायता के लिए पुकारती हुई यह (अभिस्फूर्जति) = चारों ओर मेघगर्जना के समान शब्द पैदा कर देती है। (हिङ्कृण्वती) = बंभारती हुई यह (मृत्यु:) = ब्रह्मज्य की मौत होती है। (पुच्छं पर्यस्यन्ती) = पूँछ फटकारती हुई यह ब्रह्मगवी उग्रः देवः-संहार करनेवाला काल [देव] ही बन जाती है। २.  (कर्णौ वरीवर्जयन्ति) = [Tum away, avert] कानों को बारम्बार परे करती हुई यह ब्रह्मगवी (सर्वज्यानि:) = सब हानियों का कारण बनती है और (मेहन्ती) = मेहन [मूत्र] करती हुई (राजयक्ष्मः) = राजयक्ष्मा [क्षय] को पैदा करती है। (दुहामाना) = यदि यह ब्रह्मगवी दोही जाए. अर्थात् उसे भी धनार्जन का साधन बनाया जाए, तो यह (मेनि:) = वज्र ही हो जाती है और (दुग्धा) = दुग्ध हुई-हुई (शीर्षक्ति:) = सिरदर्द ही हो जाती है।

    भावार्थ

    ब्रह्मगवी पर किसी तरह का अत्याचार करना अनुचित है, अत्याचरित हुई-हुई यह अत्याचारी की हानि व मृत्यु का कारण बनती है। इसे अर्थप्राप्ति का साधन भी नहीं बनाना, अन्यथा यह एक सरदर्द ही हो जाती है।

     

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    भाषार्थ

    (कर्णौ) कानों को (वरीवर्जयन्ती) बार-बार वर्जित सी करती हुई (सर्वज्यानिः) सर्ववयोहानिरूप है, और (मेहन्ती) और बार-बार मूत्र करती हुई (राजयक्ष्मः) तपेदिकरूप है।

    टिप्पणी

    [बार-बार वर्जित करना अर्थात् बार-बार फरफराना इस द्वारा गौ कर्ण पीड़ा आदि को सम्भवतः सूचित करती है। और मेहन्ती पद द्वारा सम्भवतः प्रमेहरोग अभिप्रेत प्रतीत होता है। प्रमेह में वृक्कों (Kidney) और मूत्राशय (Urinary Bladder) की विकृति हो जाती है। सम्भवतः इस विकृति को मन्त्र में यक्ष्म कहा हो। यक्ष्मरोग शरीर के प्रत्येक अङ्ग को हो सकता है। इसलिये यक्ष्म के सम्बन्ध में कहा है कि " अङ्गे अङ्गे लोम्नि लोम्नि यस्ते पर्वणि पर्वणि यक्ष्मं त्वचस्यम्" आदि (अथर्व० २।३३।७)। यक्ष्म के स्वरूप के परिज्ञान के लिये समग्र २।३३।१-७ मन्त्र द्रष्टव्य हैं। कर्ण और प्रमेह शब्दों द्वारा गौ की रुग्णावस्था को सूचित किया है, ताकि गोरक्षक गौ के रोगों की चिकित्सा कर सकें। गौएं यक्ष्मरोग द्वारा आक्रान्त हो जाती हैं, इसे पशु चिकित्सक जानते हैं]।

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    ब्रह्मघाती के लिये (सर्वज्यानिः) वह सब प्राणियों का नाश करनेहारी होकर वह (कर्णौ) कानों को (वरीवर्जयन्ती) फटकार रही होती है। (राजयक्ष्मः) राजयक्ष्मा का भयंकर रोग बन कर मानो वह (मेहन्ती) मूत्र कर रही होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवताच पूर्वोक्ते। १२ विराड् विषमा गायत्री, १३ आसुरी अनुष्टुप्, १४, २६ साम्नी उष्णिक, १५ गायत्री, १६, १७, १९, २० प्राजापत्यानुष्टुप्, १८ याजुषी जगती, २१, २५ साम्नी अनुष्टुप, २२ साम्नी बृहती, २३ याजुषीत्रिष्टुप्, २४ आसुरीगायत्री, २७ आर्ची उष्णिक्। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    Raising and twisting her ears as if with suspicion, she is fatally moved, pouring fury again and again, she is cancerous and consumptive.

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    Translation

    Total scathing when twisting about her ears; king Yakşma when urinating.

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    Translation

    When she moves her ears in various ways she is utter destruction and when she droppers she is consumption.

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    Translation

    Infusing life in the learned, blocking the temporal and spiritual power of the opposer, it proves for him utterly destructive like consumption.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(सर्वज्यानिः) अ० ११।३।५५। वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। ज्या वयोहानौ−नि। सर्वहानिकरः (कर्णौ) अ० १२।४।६। कॄ विज्ञाने−न प्रत्ययो नित्। अभ्युदयनिःश्रेयसबोधौ (वरीवर्जयन्ती) वृजी वर्जने यङ्लुकि शतृ। भृशं वर्जयन्ती (राजयक्ष्मः) राजरोगः (मेहन्ती) सिञ्चती धार्मिकान् ॥

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