अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
95
सा ब्र॑ह्म॒ज्यं दे॑वपी॒युं ब्र॑ह्मग॒व्यादी॒यमा॑ना मृ॒त्योः पड्वी॑ष॒ आ द्य॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठसा । ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । दे॒व॒ऽपी॒युम् । ब्र॒ह्म॒ऽग॒वी । आ॒ऽदी॒यमा॑ना । मृ॒त्यो: । पड्वी॑शे । आ । द्य॒ति॒ ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सा ब्रह्मज्यं देवपीयुं ब्रह्मगव्यादीयमाना मृत्योः पड्वीष आ द्यति ॥
स्वर रहित पद पाठसा । ब्रह्मऽज्यम् । देवऽपीयुम् । ब्रह्मऽगवी । आऽदीयमाना । मृत्यो: । पड्वीशे । आ । द्यति ॥७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।
पदार्थ
(सा) वह (आदीयमाना) छीनी जाती हुई (ब्रह्मगवी) वेदवाणी (ब्रह्मज्यम्) ब्रह्मचारियों के हानिकारक, (देवपीयुम्) विद्वानों के सतानेवाले पुरुष को (मृत्योः) मृत्यु की (पड्वीशे) बेड़ी में (आ द्यति) बाँध देती है ॥१५॥
भावार्थ
आप्त वैदिक विद्वानों को रोकनेवाला पुरुष मूर्खता के कारण महा विपत्तियों में पड़ता है ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(सा) पूर्वोक्ता (ब्रह्मज्यम्) अ० ५।१९।७। कविधौ सर्वत्र प्रसारणिभ्यो डः। वा० पा० ३।२।३। ब्रह्म+ज्या वयोहानौ−ड। ब्रह्मचारिणां हानिकरम् (देवपीयुम्) अ० ४।३५।७। विदुषां हिंसकम् (ब्रह्मगवी) म० ५। वेदवाणी (आदीयमाना) अपह्रियमाणा (मृत्योः) मरणस्य (पड्वीशे) अ० ६।९६।२। पश बन्धने−अटि, डित्+विश प्रवेशने−क, दीर्घश्च। पाशप्रवेशे। शृङ्खलायाम् (आद्यति) आङ्पूर्वो दो बन्धने। बध्नाति ॥
विषय
गायत्री आवृता ब्रह्मगवी
पदार्थ
१. (सा एषा ब्रह्मगवी) = वह यह ब्रह्मगवी-ब्राह्मण की वाणी (आवृता) = निरुद्ध हुई-हुई (भीमा) = बड़ी भयंकर है। यह (अघविषा) = राष्ट्र में पाप के विष को फैलानेवाली है। (साक्षात् कृत्या) = यह तो स्पष्ट छेदन-भेदन [हिंसा] ही है। (कूल्बजम्) = [कु+उल दाहे+ज] यह ब्रह्मगवी का निरोध भूमि पर दाह को उत्पन्न करनेवाला है। २. (अस्याम्) = इस ब्रह्मगवी के निरुद्ध होने पर (सर्वाणि घोराणि) = राष्ट्र में सब घोर कर्म होने लगते हैं (च) = और (सर्वे मृत्यवः) = सब प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं। (अस्याम्) = इस ब्रह्मगवी के निरुद्ध होने पर (सर्वाणि कूराणि) = सब क्रूर कर्म होते हैं और (सर्वे पुरुषवधा:) = सब पुरुषों के वध प्रारम्भ हो जाते हैं-क़त्ल होने लगते हैं। ३. (सा) = वह (आदीयमाना) = [दाप् लवने] छिन्न की जाती हुई (ब्रह्मगवी) = ब्राह्मण की वाणी उस (ब्रह्मज्यम्) = ज्ञान का हिंसन करनेवाले, (देवपीयुम्) = देवों के हिंसक बलदृप्त राजन्य को (मृत्योः पड्बीशे) = मौत की बेड़ी में (आद्यति) = बाँधती है [आ-दो बन्धने]।
भावार्थ
राष्ट्र में ब्राह्मण की वाणी पर प्रतिबन्ध लगाने से राष्ट्र में पाप, हिंसा व क्रूर कर्मों का प्राबल्य हो जाता है। अन्ततः यह प्रतिबन्धक राजा भी मृत्यु के पजे में फँसता है।
भाषार्थ
(सा ब्रह्मगवी) ब्रह्म अर्थात् परमेश्वर की वह गौ अर्थात् गोजाति (आदीयमाना) हिंसित की जाती हुई, (ब्रह्मज्यम्) गो जाति के अधिपति ब्राह्मण को हानि पहुंचाने वाले, (देवपीयुम्) देवकोटि के ब्राह्मण के हिंसक [क्षत्रिय राजा] का (मृत्योः पड्वीशे) मृत्यु की बेड़ी में (आ द्यति) पूर्णतया विनाश कर देती है।
टिप्पणी
[ब्रह्मज्यम्= ब्रह्म (ब्राह्मण) + ज्या वयोहानौ। पीयुम्= पीयतिहिंसाकर्मा (निरु० ४।४।२५)। ब्रह्मगवी= परमेश्वर की गोजाति। आदीयमाना = आ + दीङ् (क्षये) +यक्, मुक्, शानच्। पड्वीशे=पदि विशति, पैरों में डाला गया "पादबन्धन", बेड़ी। ब्रह्मज्यम् = ब्राह्मण, गोरक्षान्दोलन का नेता है। यह ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ है, निःस्वार्थी तथा परोपकारी है, अतः नेता बनने का अधिकारी है। इन गुणों वाले व्यक्ति ही आन्दोलन आदि के नेता होने चाहियें। मन्त्रों में वर्णित ब्राह्मण पद जन्मजात का सूचक नहीं इसलिये मन्त्र में ब्राह्मणपद नहीं दिया, अपितु "ब्रह्म" पद दिया है, जो ब्रह्म और वेद का सूचक है] आ द्यति = दो अवखण्डने (दिवादि)।
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(सा ब्रह्मगवी) वह ब्रह्मगवी (आदीयमाना) पकड़ी जाकर (ब्रह्मज्यं) ब्राह्मण वेद और वेदज्ञों के विनाशक (देवपीयुं) देवों, विद्वान् पुरुषों के हिंसक पुरुषों को (मृत्योः) मौत के (पड्वीशे) पञ्जे में या फांसे में (आद्यति) फांस कर खण्ड खण्ड कर डालती है।
टिप्पणी
‘गव्या इदीय’ इति क्वचित।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्देवताच पूर्वोक्ते। १२ विराड् विषमा गायत्री, १३ आसुरी अनुष्टुप्, १४, २६ साम्नी उष्णिक, १५ गायत्री, १६, १७, १९, २० प्राजापत्यानुष्टुप्, १८ याजुषी जगती, २१, २५ साम्नी अनुष्टुप, २२ साम्नी बृहती, २३ याजुषीत्रिष्टुप्, २४ आसुरीगायत्री, २७ आर्ची उष्णिक्। षोडशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Cow
Meaning
Then the Divine Cow, seized and suppressed, binds the tormentor of Brahmana, worshipper of divinities, in chains of death and destroys him.
Translation
This Brahman-cow,when taken to oneself, binds the Brahman-scather, the god-reviler, in the shackle of death.
Translation
This Brahmagavi appropriated for ones own purposes, holds fast in the fetter of death the man who is the oppressor or Brahmanas and sacrilegious to the Devas.
Translation
This Vedic knowledge, being snatched, holdeth bound in the fetter of Death, the oppressor of the Brahmcharis, the blasphemer of the sages.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(सा) पूर्वोक्ता (ब्रह्मज्यम्) अ० ५।१९।७। कविधौ सर्वत्र प्रसारणिभ्यो डः। वा० पा० ३।२।३। ब्रह्म+ज्या वयोहानौ−ड। ब्रह्मचारिणां हानिकरम् (देवपीयुम्) अ० ४।३५।७। विदुषां हिंसकम् (ब्रह्मगवी) म० ५। वेदवाणी (आदीयमाना) अपह्रियमाणा (मृत्योः) मरणस्य (पड्वीशे) अ० ६।९६।२। पश बन्धने−अटि, डित्+विश प्रवेशने−क, दीर्घश्च। पाशप्रवेशे। शृङ्खलायाम् (आद्यति) आङ्पूर्वो दो बन्धने। बध्नाति ॥
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