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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 59
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    220

    मे॒निः श॑र॒व्या भवा॒घाद॒घवि॑षा भव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मे॒नि: । श॒र॒व्या᳡ । भ॒व॒ । अ॒घात् । अ॒घऽवि॑षा । भ॒व॒ ॥१०.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मेनिः शरव्या भवाघादघविषा भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मेनि: । शरव्या । भव । अघात् । अघऽविषा । भव ॥१०.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 59
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वेदवाणी !] तू [वेदनिन्दक के लिये] (मेनिः) वज्र, (शरव्या) वाणविद्या में चतुर सेना (भव) हो और (अघात्) [उसके] पाप के कारण से (अघविषा) महाघोर विषैली (भव) हो ॥५९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अज्ञानी होकर वेदविरुद्ध कुकर्म करे, उसको विद्वान् लोग पूरा दण्ड देवें ॥५९॥

    टिप्पणी

    ५९−(मेनिः) म० १६। वज्रः (शरव्या) म० २५। शरौ वाणविद्यायां कुशला सेना (भव) (अघविषा) म० १२। अतिशयेन विषमयी (भव) ॥

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    विषय

    छेदन....हिंसा.....आशरविनाश

    पदार्थ

    १. हे ब्रह्मगवि! तू (जीतम्) = हिंसाकारी पुरुष को (आदाय) = पकड़कर (अमुष्मिन् लोके) = परलोक में जीताय प्रयच्छसि उससे पीड़ित पुरुष के हाथों में सौंप देती है। यह ब्रह्मज्य अगले जीवन में उस ब्राह्मण की अधीनता में होता है। हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू (ब्राह्मणस्य) = इस ज्ञानी ब्राह्मण की (अभिशस्त्या) = हिंसा से उत्पन्न होनेवाले भयंकर परिणामों को उपस्थित करके (पदवी: भव) = मार्गदर्शक बन। तू ब्रह्मज्य के लिए (मेनि:) = वज्र (भव) = हो, शरव्या लक्ष्य पर आघात करनेवाले शरसमूह के समान हो, (आघात् अघविषा भव) = कष्ट से भी घोर कष्टरूप विषवाली बन । २. हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू इस (ब्रह्मज्यस्य) = ज्ञान के विघातक, (कृतागस:) = [कृतं आगो येन] अपराधकारी, (देवपीयो:) = विद्वानों व दिव्यगुणों के हिंसक, (अराधसः) = उत्तम कार्यों को न सिद्ध होने देनेवाले दुष्ट के (शिरः प्रजहि) = सिर को कुचल डाल। (त्वया) = तेरे द्वारा (प्रमूर्णम्) = मारे गये, (मृदितम्) = चकनाचूर किये गये, (दुश्चितम्) = दुष्टबुद्धि पुरुष को (अग्निः दहतु) = अग्नि दग्ध कर दे।

    भावार्थ

    ब्रह्मगवी का हिंसक पुरुष जन्मान्तर में ब्राह्मणों के वश में स्थापित होता है। हिंसित ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य का हिंसन करती है। हिसित ब्रह्मगवी से यह ब्रह्मज्य अग्नि द्वारा दग्ध किया जाता है।

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    भाषार्थ

    [हे अघ्न्ये] तू (मेनिः) हिंसक वज्र, (शरव्या) विशीर्ण करने वाला शर समूह, तथा (अघात्) घातक पाप से (अघविषा) घातक विष (भव) होजा।

    टिप्पणी

    [मेनिः = मी हिंसायाम्। शरव्या = शृ हिंसायाम्। अघम् = आहन्तीति।]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ब्रह्मगवि ! तू (मेनिः) वज्ररूप, (शरव्या) बाणरूप (भव) हो। तू (अधात्) सब अत्याचारों को खाजाने वाली और स्वयं (अधविषा) पापी के लिये अप्रतीकार्य विष रूप (भव) हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    Be the thunderbolt, fatal arrow, be the deadly poison against sin and the sinfuls.

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    Translation

    Become thou a weapon, a shaft; become thou deadly poisonous from evil.

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    Translation

    Let is become the bolt and arrow and through affensive the most venomous.

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    Translation

    O Vedic knowledge! become a bolt, an arrow, be terribly venomous on account of the sin of thy reviler.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५९−(मेनिः) म० १६। वज्रः (शरव्या) म० २५। शरौ वाणविद्यायां कुशला सेना (भव) (अघविषा) म० १२। अतिशयेन विषमयी (भव) ॥

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