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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - शाला, वास्तोष्पतिः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - शालनिर्माण सूक्त

    इ॒हैव ध्रु॒वा प्रति॑ तिष्ठ शा॒ले ऽश्वा॑वती॒ गोम॑ती सू॒नृता॑वती। ऊर्ज॑स्वती घृ॒तव॑ती॒ पय॑स्व॒त्युच्छ्र॑यस्व मह॒ते सौभ॑गाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ए॒व । ध्रु॒वा। प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शा॒ले॒ । अश्व॑ऽवती । गोऽम॑ती । सू॒नृता॑ऽवती । ऊर्ज॑स्वती ।घृ॒तऽव॑ती । पय॑स्वती । उत् । श्र॒य॒स्व॒ । म॒ह॒ते॒ । सौभ॑गाय ॥१२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहैव ध्रुवा प्रति तिष्ठ शाले ऽश्वावती गोमती सूनृतावती। ऊर्जस्वती घृतवती पयस्वत्युच्छ्रयस्व महते सौभगाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । एव । ध्रुवा। प्रति । तिष्ठ । शाले । अश्वऽवती । गोऽमती । सूनृताऽवती । ऊर्जस्वती ।घृतऽवती । पयस्वती । उत् । श्रयस्व । महते । सौभगाय ॥१२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 12; मन्त्र » 2

    शब्दार्थ -
    (शाले) यह विशाल भवन (इह एव) जहाँ बना है वहाँ ही चिर काल तक (ध्रुवा) खूब दृढ़ होकर (प्रति तिष्ठ) खड़ा रहे । (अश्वावती) इसके अन्दर घोड़े हीं (गोमती) गौएँ हों (सूनृतावती) इसके अन्दर रहनेवाले लोग सदा सत्य, मीठा और मधुर बोलनेवाले हो (ऊर्जस्वती) यह अन्न से भरपूर हो (घृतवती) घी से भरपूर हो (पयस्वती) दूध और जलादि पेय पदार्थों से सम्पन्न हो और (महते सौभगाय) हमारी महान् सुख-समृद्धि के लिए (उत् श्रयस्व) खूब ऊँचा होकर खड़ा रह।

    भावार्थ - हमारे घर कैसे हों ? हमारे घर टूटे-फुटे न हों। हम झोंपड़ियों में न रहें । वेद मनुष्यों को विशाल-भवन निर्माण कर उनमें रहने का आदेश देता है। हमारे घर ऐसे दृढ़ हों कि तूफान और वृष्टि, बिजली और भूचाल भी उनका कुछ बिगाड़ न सकें । साथ ही घर इतने विशाल होने चाहिएँ कि उनमें गाय और घोड़े बाँधे जा सकें। उनमें अन्नागार हों, घी और दूध के कोठे हों । मन्त्र में एक आदर्श गृहस्थ का चित्रण खीचा गया है । १. गृहस्थ के पास अपना भव्य एवं दृढ़ भवन होना चाहिए । २. सवारी के लिए घोड़े होने चाहिएँ । ३. दूध पीने के लिए गौ होनी चाहिए । ४. वर के सभी व्यक्ति सत्यवादी और मधुरभाषी हों । ५. घर अन्न से भरपूर हो; दूध, दही आदि किसी वस्तु का अभाव न हो । ऐसे होने चाहिएँ हमारे घर !

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