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अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - मरुद्गणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
अ॒सौ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒स्मानैत्य॒भ्योज॑सा॒ स्पर्ध॑माना। तां वि॑ध्यत॒ तम॒साप॑व्रतेन॒ यथै॑षाम॒न्यो अ॒न्यं न जा॒नात् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सौ । या । सेना॑ । म॒रु॒त॒: । परे॑षाम् । अ॒स्मान् । आ॒ऽएति॑ । अ॒भि । ओज॑सा । स्पर्ध॑माना ।ताम् । वि॒ध्य॒त॒ । तम॑सा । अप॑ऽव्रतेन । यथा॑ । ए॒षा॒म् । अ॒न्य: । अ॒न्यम् । न । जा॒नात् ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना। तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ॥
स्वर रहित पद पाठअसौ । या । सेना । मरुत: । परेषाम् । अस्मान् । आऽएति । अभि । ओजसा । स्पर्धमाना ।ताम् । विध्यत । तमसा । अपऽव्रतेन । यथा । एषाम् । अन्य: । अन्यम् । न । जानात् ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
विषय - अग्नि, वायव्य और तमसास्त्र
शब्दार्थ -
(इन्द्र) हे राजन् ! (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (सेनाम्) सेना को (मोहय) मोहित कर दे, किंकर्तव्यविमूढ़ बना दे और (अग्ने: ध्राज्या) आग्नेयास्त्र से (वातस्य) वायव्यास्त्र से (तान्) उन सब सैनिकों को (विषूच:) छिन्न-भिन्न करके (विनाशय) नष्ट कर डाल ।
भावार्थ - इस मन्त्र में ग्राग्नेय और वायव्यास्त्र का स्पष्ट वर्णन है । (मरुतः) हे वीर सैनिको ! (या असौ) जो वह (परेषां सेना) शत्रुओं की सेना (ओजसा) अपने बल से (स्पर्धमाना) आक्रमण करती हुई (अस्मान्) हमारी ओर (अभि एति) चली आ रही है (ताम् ) उस सेना को (अपव्रतेन तमसा ) आच्छादक तमसास्त्र से, धूमास्त्र से (विध्यत) वेध डाल (यथा) जिससे (एषां) इनमें से (अन्यः अन्यम्) एकदूसरे को, कोई किसीको (न जानात्) न जाने, न पहचान पाए । इस मन्त्र में तमसा अथवा धूमास्त्र का स्पष्ट वर्णन है । वेद में युद्ध के सभी अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन है । वेद के आधार पर ही महाभारत काल में ऐसे-ऐसे अस्त्र और शस्त्रों का निर्माण किया गया था कि बीसवीं शताब्दी का वैज्ञानिक भी अभी तक वहाँ नहीं पहुँच पाया है। महाभारत में नारायणास्त्र का वर्णन आता है। आज के वैज्ञानिक अभी तक इस प्रकार का आविष्कार करने में असमर्थ रहे हैं ।
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