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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 25
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - ककुबुष्णिक् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    स॒हस्र॑कुणपा शेतामामि॒त्री सेना॑ सम॒रे व॒धाना॑म्। विवि॑द्धा कक॒जाकृ॑ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽकुणपा । शे॒ता॒म् । आ॒मि॒त्री । सेना॑ । स॒म्ऽअ॒रे । व॒धाना॑म् । विऽवि॑ध्दा । क॒क॒जाऽकृ॑ता ॥१२.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रकुणपा शेतामामित्री सेना समरे वधानाम्। विविद्धा ककजाकृता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽकुणपा । शेताम् । आमित्री । सेना । सम्ऽअरे । वधानाम् । विऽविध्दा । ककजाऽकृता ॥१२.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 25

    मन्त्रार्थ -
    (वधानां समरे) बधक शस्त्रों के संघर्ष-होड़ में (मित्र सेना) शत्रु की सेना (विविद्धा) विविध प्रहारों से क्ष विक्षत हुई (ककजाकृता) तथा ककजा-शस्त्र प्रहारों से उत्पन्न हुई घबराहट से हिंसित पीड़ित (सहस्रकुणपा) असंख्य शवो वाली (शेताम) पृथिवी पर सो जावे ॥२५॥

    विशेष - ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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