यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 10
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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अ॒न्यदे॒वाहुः स॑म्भ॒वाद॒न्यदा॑हु॒रस॑म्भवात्।इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे॥१०॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्यत्। ए॒व। आ॒हुः। स॒म्भ॒वादिति॑ सम्ऽभ॒वात्। अ॒न्यत्। आ॒हुः। अस॑म्भवा॒दित्यस॑म्ऽभवात् ॥ इति॑। शु॒श्रु॒म॒। धीरा॑णाम्। ये। नः॒। तत्। वि॒च॒च॒क्षि॒र इति॑ विऽचचक्षि॒रे ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुर्शम्भवात् । इति शुश्रुम धीराणाँये नस्तद्विचचक्षिरे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्यत्। एव। आहुः। सम्भवादिति सम्ऽभवात्। अन्यत्। आहुः। असम्भवादित्यसम्ऽभवात्॥ इति। शुश्रुम। धीराणाम्। ये। नः। तत्। विचचक्षिर इति विऽचचक्षिरे॥१०॥
मन्त्रार्थ -
(सम्भवात्) सम्भव-सम्भूति-सृष्टि से (अन्यत्-एव-आहुः) और ही फल कहते हैं (असम्भवात्) असम्भव असम्भूति-प्रकृति से (अन्यत्-आहुः) अन्य फल कहते है (इति) ऐसा कथन (धीराणाम्) धीर-ध्यानी महापुरुषों का (शुश्रुम) सुनते हैं (ये) जो (नः) हमें (तत्-विचचक्षिरे) उसका व्याख्यान करते थे ॥१०॥
टिप्पणी -
असम्भूति = न सम्भूति सम्भूति मिलकर बनने वाली सृष्टि । सम्भूय गच्छत' अर्थात् मिलकर चलो तथा “सम्भवामि युगे युगे " ( गीता० ४८) मैं युग युग में उत्पन्न होता हूँ । अतः सम्भूति उत्पन्न होने वाली सृष्टि । सम्भूति सृष्टि और असम्भूति सृष्टि से भिन्न सृष्टि जैसी जड प्रकृति । “नत्रिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथाह्यर्थगतिः । अब्राह्मणमानयेत्युक्ते ब्राह्मणसदृशः पुरुष आनीयते न लोष्टमानीय कृती भवति" ( महाभाष्यम् ) जैसे ब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मण से भिन्न ब्राह्मण जैसा क्षत्रियादि मनुष्य है ।
विशेष - "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
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