यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 17
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्।यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पु॑रुषः॒ सोऽसाव॒हम्। ओ३म् खं ब्रह्म॑॥१७॥
स्वर सहित पद पाठहि॒र॒ण्मये॑न॒। पात्रे॑ण। स॒त्यस्य॑। अपि॑हित॒मित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। अ॒सौ। आ॒दि॒त्ये। पुरु॑षः। सः। अ॒सौ। अ॒हम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । यो सावादित्ये पुरुषः सो सावहम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥
स्वर रहित पद पाठ
हिरण्मयेन। पात्रेण। सत्यस्य। अपिहितमित्यपिऽहितम्। मुखम्॥ यः। असौ। आदित्ये। पुरुषः। सः। असौ। अहम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॥१७॥
मन्त्रार्थ -
(हिरण्मयेन पात्रेण) सुनहरे चमकीले पात्रसमान सूर्य जो संसार को स्वप्रकाश देने से मार्ग दर्शक बना हुआ है इसके द्वारा (सत्यस्य मुखम् अपिहितम्) सत्य स्वरूप सत्य ज्ञानप्रकाश स्वरूप सत्यमार्गदर्शक का स्वरूप ढका गया है इसके बाह्यरूप से वह ढका गया है । परन्तु (आदित्येयः-सौ पुरुषः) सूर्य में जो वह पूर्ण पुरुष है उसे पूरित किए हुए उसमें व्यापे हुए हैं जिसके व्यापने से वह प्रकाशमान तथा संसार का मार्गदर्शक बना हुआ है (सः-असौ-अहम्-ओ३म् खं ब्रह्म) सो वह पुरुष मैं ओ३म् नाम से प्रसिद्ध व्यापक ब्रह्म हूँ तू यह जान ॥१७॥
विशेष - "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
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