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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 32
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - ब्राह्मी बृहती,स्वराट् बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    नमो॑ वः पितरो॒ रसा॑य॒ नमो॑ वः पितरः॒ शोषा॑य॒ नमो॑ वः पितरो जी॒वाय॒ नमो॑ वः पितरः स्व॒धायै॒ नमो॑ वः पितरो घो॒राय॒ नमो॑ वः पितरो म॒न्यवे॒ नमो॑ वः पितरः॒ पित॑रो॒ नमो॑ वो गृ॒हान्नः॑ पितरो दत्त स॒तो वः॑ पितरो देष्मै॒तद्वः॑ पितरो॒ वासः॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। रसा॑य। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। शोषा॑यः नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। जी॒वाय॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। स्व॒धायै॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। घो॒राय॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। म॒न्यवे॑। नमः॑। वः॒। पि॒त॒रः॒। पि॒त॒रः॑। नमः॑। वः॒। गृ॒हान्। नः॒। पि॒त॒रः॒। द॒त्त॒। स॒तः। वः॒। पि॒त॒रः॒। दे॒ष्म॒। ए॒तत्। वः॒। पि॒त॒रः॒। वासः॑ ॥३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोरय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो देष्मैतद्वः पितरो वासऽआधत्त ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। वः। पितरः। रसाय। नमः। वः। पितरः। शोषायः नमः। वः। पितरः। जीवाय। नमः। वः। पितरः। स्वधायै। नमः। वः। पितरः। घोराय। नमः। वः। पितरः। मन्यवे। नमः। वः। पितरः। पितरः। नमः। वः। गृहान्। नः। पितरः। दत्त। सतः। वः। पितरः। देष्म। एतत्। वः। पितरः। वासः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 32
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    पदार्थ -
    हे (पितरः) विद्या के आनन्द को देने वाले विद्वान् लोगो! (रसाय) विज्ञानरूपी आनन्द की प्राप्ति के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) नमस्कार हो। हे (पितरः) दुःख का विनाश और रक्षा करने वाले विद्वानो! (शोषाय) दुःख और शत्रुओं की निवृत्ति के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) नमस्कार हो। हे (पितरः) धर्मयुक्त जीविका के विज्ञान कराने वाले विद्वानो! (जीवाय) जिससे प्राण का स्थिर धारण होता है, उस जीविका के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) शील-धारण विदित हो। हे (पितरः) विद्या, अन्न आदि भोगों की शिक्षा करने हारे विद्वानो! (स्वधायै) अन्न, पृथिवी, राज्य और न्याय के प्रकाश के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) नम्रीभाव विदित हो। हे (पितरः) पाप और आपत्काल के निवारक विद्वान् लोगो! (घोराय) दुःखसमूह की निवृत्ति के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) क्रोध का छोड़ना विदित हो। हे (पितरः) श्रेष्ठों के पालन करने हारे विद्वानो! (मन्यवे) दुष्टाचरण करने वाले दुष्ट जीवों में क्रोध करने के लिये (वः) तुम को हमारा (नमः) सत्कार विदित हो। हे (पितरः) ज्ञानी विद्वानो! (वः) तुम को विद्या के लिये (नमः) हमारी विज्ञान ग्रहण करने की इच्छा विदित हो। हे (पितरः) प्रीति के साथ रक्षा करने वाले विद्वानो! (वः) तुम्हारे सत्कार होने के लिये हमारा (नमः) सत्कार करना तुम को विदित हो। आप लोग हमारे (गृहान्) घरों में नित्य आओ और आके रहो। हे (पितरः) विद्या देने वाले विद्वानो! (नः) हमारे लिये शिक्षा और विद्या नित्य (दत्त) देते रहो। हे पिता-माता आदि विद्वान् पुरुषो! हम लोग (वः) तुम्हारे लिये जो-जो (सतः) विद्यमान पदार्थ हैं, वे नित्य (देष्म) देवें। हे (पितरः) सेवा करने योग्य पितृ लोगो! हमारे दिये इन (वासः) वस्त्रादि को ग्रहण कीजिये॥३२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में अनेक बार (नमः) यह पद अनेक शुभगुण और सत्कार प्रकाश करने के लिये धरा है। जैसे वसन्त, ग्रीष्म, शरद्, हेमन्त और शिशिर ये छः ऋतु रस, शोष जीव, अन्न, कठिनता और क्रोध के उत्पन्न करने वाले होते हैं, वैसे ही पितर भी अनेक विद्याओं के उपदेश से मनुष्यों को निरन्तर सुख देते हैं। इस से मनुष्यों को चाहिये कि उक्त पितरों को उत्तम-उत्तम पदार्थों से सन्तुष्ट करके उनसे विद्या के उपदेश का निरन्तर ग्रहण करें॥३२॥

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