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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    वी॒तिहो॑त्रं त्वा कवे द्यु॒मन्त॒ꣳ समि॑धीमहि। अग्ने॑ बृ॒हन्त॑मध्व॒रे॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वी॒तिहो॑त्र॒मिति॑ वी॒तिऽहो॑त्रम्। त्वा॒। क॒वे॒। द्यु॒मन्त॒मिति॑ द्यु॒ऽमन्त॒म्। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। अग्ने॑। बृ॒हन्त॑म्। अ॒ध्व॒रे ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वीतिहोत्रन्त्वा कवे द्युमन्तँ समिधीमहि । अग्ने बृहन्तमध्वरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वीतिहोत्रमिति वीतिऽहोत्रम्। त्वा। कवे। द्युमन्तमिति द्युऽमन्तम्। सम्। इधीमहि। अग्ने। बृहन्तम्। अध्वरे॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    हे (कवे) सर्वज्ञ तथा हर एक पदार्थ में अनुक्रम से विज्ञान वाले (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर! हम लोग (अध्वरे) मित्रभाव के रहने में (बृहन्तम्) सब के लिये बड़े से बड़े अपार सुख के बढ़ाने और (द्युमन्तम्) अत्यन्त प्रकाश वाले वा (वीतिहोत्रम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञों को विदित कराने वाले (त्वा) आप को (समिधीमहि) अच्छी प्रकार प्रकाशित करें॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ॥ हम लोग (अध्वरे) अहिंसनीय अर्थात् जो कभी परित्याग करने योग्य नहीं, उस उत्तम यज्ञ में जिसमें कि (वीतिहोत्रम्) पदार्थों की प्राप्ति कराने के हेतु अग्निहोत्र आदि क्रिया सिद्ध होती है और (द्युमन्तम्) अत्यन्त प्रचण्ड ज्वालायुक्त (बृहन्तम्) बड़े-बड़े कार्य्यों को सिद्ध कराने तथा (कवे) पदार्थों में अनुक्रम से दृष्टिगोचर होने वाले (त्वा) उस (अग्ने) भौतिक अग्नि को (समिधीमहि) अच्छी प्रकार प्रज्वलित करें॥ यह दूसरा अर्थ हुआ॥४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है-संसार में जितने क्रियाओं के साधन वा क्रियाओं से सिद्ध होने वाले पदार्थ हैं, उन सबों को ईश्वर ही ने रचकर अच्छी प्रकार धारण किया है। मनुष्यों को उचित है कि उनकी सहायता से, गुण, ज्ञान और उत्तम-उत्तम क्रियाओं की अनुकूलता से अनेक प्रकार के उपकार लेने चाहियें॥४॥

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