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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निः सर्वस्य छन्दः - अनुष्टुप्,भूरिक् आर्ची गायत्री स्वरः - गान्धारः
    10

    ए॒षा ते॑ऽअग्ने स॒मित्तया॒ वर्ध॑स्व॒ चा च प्यायस्व। व॒र्धि॒षी॒महि॑ च व॒यमा च॑ प्यासिषीमहि। अग्ने॑ वाजजि॒द् वाजं॑ त्वा संसृ॒वासं॑ वाज॒जित॒ꣳ सम्मा॑र्ज्मि॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षा। ते॒। अ॒ग्ने॒। स॒मिदिति॑ स॒म्ऽइत्। तया॑। वर्ध॑स्व। च॒। आ॒। च॒। प्या॒य॒स्व॒। व॒र्धि॒षी॒महि॑। च॒। व॒यम्। आ। च॒। प्या॒सि॒षी॒म॒हि॒। अग्ने॑। वा॒ज॒जि॒दिति॑ वाजऽजित्। वाज॑म्। त्वा॒। स॒सृ॒वास॒मिति॑ स॒सृ॒वास॑म्। वा॒ज॒जित॒मिति॑ वाज॒ऽजित॑म्। सम्। मा॒र्ज्मि॒ ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एषा तेऽअग्ने समित्तया वर्धस्व चा च प्यायस्व । वर्धिषीमहि च वयमा च प्यासिषीमहि । अग्ने वाजजिद्वाजन्त्वा ससृवाँसँ वाजजितँ सम्मार्ज्मि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषा। ते। अग्ने। समिदिति सम्ऽइत्। तया। वर्धस्व। च। आ। च। प्यायस्व। वर्धिषीमहि। च। वयम्। आ। च। प्यासिषीमहि। अग्ने। वाजजिदिति वाजऽजित्। वाजम्। त्वा। ससृवासमिति ससृवासम्। वाजजितमिति वाजऽजितम्। सम्। मार्ज्मि॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) परमेश्वर! (ते) आपकी जो (एषा) यह (समित्) अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों की प्रकाश करने वाली वेदविद्या है, (तया) उससे हम लोगों की की हुई स्तुति को प्राप्त होकर आप नित्य (वर्धस्व) हमारे ज्ञान में वृद्धि को प्राप्त हूजिये, (च) और उस वेदविद्या से हम लोगों की भी नित्य वृद्धि कीजिये। इसी प्रकार हे भगवन्! आप के गुणों को जाननेहारे हम लोगों से (च) भी प्रकाशित होकर आप (प्यायस्व) हमारे आत्माओं में वृद्धि को प्राप्त हूजिये। इसी प्रकार हम को भी बढ़ाइये। हे भगवन्! (अग्ने) विज्ञानस्वरूप विजय देने और (वाजजित्) सब के वेग को जीतने वाले परमेश्वर हम लोग (वाजम्) जो कि ज्ञानस्वरूप (ससृवांसम्) अर्थात् सबको जानने वाले (त्वा) आपकी (वर्धिषीमहि) स्तुतियों से वृद्धि तथा प्राप्ति करें (च) और आप कृपा करके हम को भी सब के वेग के जीतने तथा ज्ञानवान् अर्थात् सब के मन के व्यवहारों को जानने वाले कीजिये और जैसे हम लोग आपकी (आप्यासिषीमहि) अधिक-अधिक स्तुति करें, वैसे ही आप भी हम लोगों को सब उत्तम-उत्तम गुण और सुखों से (आप्यायस्व) वृद्धियुक्त कीजिये। हम आपके आश्रय को प्राप्त होकर तथा आपकी आज्ञा के पालने से (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार शुद्ध होते हैं॥१॥ जो (एषा) यह (अग्ने) भौतिक अग्नि है (ते) उसकी (समित्) बढ़ाने अर्थात् अच्छी प्रकार प्रदीप्त करने वाली लकडि़यों का समूह है (तया) उससे यह अग्नि (वर्धस्व) बढ़ता और (आप्यायस्व) परिपूर्ण भी होता है। हम लोग (त्वा) उस (वाजम्) वेग और (ससृवांसम्) शिल्पविद्या के गुणों को देने तथा (वाजजितम्) संग्राम के जिताने के साधन अग्नि को विद्या की वृद्धि के लिये (वर्धिषीमहि) बढ़ाते हैं। (च) और (आप्यासिषीमहि) कलाओं में परिपूर्ण भी करते हैं, जिससे यह शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए विमान आदि यानों तथा वेग वाले शिल्पविद्या के गुणों की प्राप्ति से संग्राम को जिताने वाले हमको विजय के साथ बढ़ाता है, इससे (त्वा) उस अग्नि को हम (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार प्रयोग करते हैं॥२॥१४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और एक-एक अर्थ के दो-दो क्रियापद आदर के लिये जानने चाहिये। जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा के पालने और क्रिया की कुशलता में उन्नति को प्राप्त होते हैं, वे विद्या और सुख में सब को आनन्दित कर और दुष्ट शत्रुओं को जीतकर शुद्ध होके सुखी होते हैं। जो आलस्य करने वाले हैं, वे ऐसे कभी नहीं हो सकते और चार चकारों से ईश्वर की धर्मयुक्त आज्ञा सूक्ष्म वा स्थूलता से अनेक प्रकार की और क्रियाकाण्ड में करने योग्य कार्य्य भी अनेक प्रकार के हैं, ऐसा समझना चाहिये। जो तेरहवें मन्त्र में वेदविद्या कही है उस से सुख के लिये यज्ञ का सन्धान तथा पुरुषार्थ करना चाहिये ऐसा इस मन्त्र में प्रतिपादन किया है॥१४॥

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