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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 11
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प॒रीत्य॑ भू॒तानि॑ प॒रीत्य॑ लो॒कान् प॒रीत्य॒ सर्वाः॑ प्र॒दिशो॒ दिश॑श्च।उ॒प॒स्थाय॑ प्रथम॒जामृ॒तस्या॒त्मना॒ऽऽत्मान॑म॒भि सं वि॑वेश॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रीत्येति॑ परि॒ऽइत्य॑। भू॒तानि॑। प॒रीत्येति॑ परि॒ऽइत्य॑। लो॒कान्। प॒रीत्येति॑ परि॒ऽइत्य॑। सर्वाः॑। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। दिशः॑। च॒ ॥ उ॒प॒स्थायेत्यु॑प॒ऽस्थाय॑। प्र॒थ॒म॒जामिति॑ प्रथम॒ऽजाम्। ऋ॒तस्य॑। आ॒त्मना॑। आ॒त्मान॑म्। अ॒भि। सम्। वि॒वे॒श॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परीत्य भूतानि परीत्य लोकान्परीत्य सर्वाः प्रदिशो दिशश्च । उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि सँविवेश ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परीत्येति परिऽइत्य। भूतानि। परीत्येति परिऽइत्य। लोकान्। परीत्येति परिऽइत्य। सर्वाः। प्रदिश इति प्रऽदिशः। दिशः। च॥ उपस्थायेत्युपऽस्थाय। प्रथमजामिति प्रथमऽजाम्। ऋतस्य। आत्मना। आत्मानम्। अभि। सम्। विवेश॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! आप जो (भूतानि) प्राणियों को (परीत्य) सब ओर से व्याप्त हो के (लोकान्) पृथिवी सूर्यादि लोकों को (परीत्य) सब ओर से व्याप्त हो के (च) और ऊपर नीचे (सर्वाः) सब (प्रदिशः) आग्नेयादि उपदिशा तथा (दिशः) पूर्वादि दिशाओं को (परीत्य) सब ओर से व्याप्त हो के (ऋतस्य) सत्य के (आत्मानम्) स्वरूप वा अधिष्ठान को (अभि, सम्, विवेश) सम्मुखता से सम्यक् प्रवेश करता है (प्रथमजाम्) प्रथम कल्पादि में उत्पन्न चार वेदरूप वाणी को (उपस्थाय) पढ़ वा सम्यक् सेवन करके (आत्मना) अपने शुद्धस्वरूप वा अन्तःकरण से उसको प्राप्त हूजिये॥११॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोग धर्म के आचरण, वेद और योग के अभ्यास तथा सत्सङ्ग आदि कर्मों से शरीर की पुष्टि और आत्मा तथा अन्तःकरण की शुद्धि को संपादन कर सर्वत्र अभिव्याप्त परमात्मा को प्राप्त हो के सुखी होओ॥११॥

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