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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 9
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्र तद्वो॑चेद॒मृतं॒ नु वि॒द्वान् ग॑न्ध॒र्वो धाम॒ विभृ॑तं॒ गृहा॒ सत्।त्रीणि॑ प॒दानि॒ निहि॑ता॒ गुहा॑स्य॒ यस्तानि॒ वेद॒ स पि॒तुः पि॒ताऽस॑त्॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। तत्। वो॒चे॒त्। अ॒मृत॑म्। नु। वि॒द्वान्। ग॒न्ध॒र्वः। धाम॑। विभृ॑त॒मिति॒ विऽभृ॑तम्। गुहा॑। सत् ॥ त्रीणि॑। प॒दानि॑। निहि॒तेति॒ निऽहि॑ता। गुहा॑। अ॒स्य॒। यः। तानि॑। वेद॑। सः। पि॒तुः। पि॒ता। अ॒स॒त् ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र तद्वोचेदमृतन्नु विद्वान्गन्धर्वो धाम विभृतङ्गुहा सत् । त्रीणि पदानि निहिता गुहास्य यस्तानि वेद स पितुः पितासत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। तत्। वोचेत्। अमृतम्। नु। विद्वान्। गन्धर्वः। धाम। विभृतमिति विऽभृतम्। गुहा। सत्॥ त्रीणि। पदानि। निहितेति निऽहिता। गुहा। अस्य। यः। तानि। वेद। सः। पितुः। पिता। असत्॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 9
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (यः) जो (गन्धर्वः) वेदवाणी को धारण करनेवाला (विद्वान्) पण्डित (गुहा) बुद्धि में (बिभृतम्) विशेष धारण किये (अमृतम्) नाशरहित (धाम) मुक्ति के स्थान (तत्) उस (सत्) नित्य चेतन ब्रह्म का (नु) शीघ्र (प्र, वोचेत्) गुण-कर्म-स्वभावों के सहित उपदेश करे और जो (अस्य) इस अविनाशी ब्रह्म के (गुहा) ज्ञान में (निहिता) स्थित (पदानि) जानने योग्य (त्रीणि) तीन उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय वा भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान काल हैं, (तानि) उनको (वेद) जानता है, (सः) वह (पितुः) अपने पिता वा सर्वरक्षक ईश्वर का (पिता) ज्ञान देने वा आस्तिकत्व से रक्षक (असत्) होवे॥९॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जो विद्वान् लोग ईश्वर के मुक्तिसाधक बुद्धिस्थ स्वरूप का उपदेश करें, ठीक-ठीक पदार्थों के और ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव को जानें वे अवस्था में बड़े पितादिकों के भी रक्षा के योग्य होते हैं, ऐसा जानो॥९॥

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