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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 8
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः
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    प्रति॒पद॑सि प्रति॒पदे॑ त्वानु॒पद॑स्यनु॒पदे॑ त्वा स॒म्पद॑सि स॒म्पदे॑ त्वा॒ तेजो॑ऽसि॒ तेज॑से त्वा॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ति॒पदिति॑ प्रति॒ऽपत्। अ॒सि॒। प्र॒ति॒पद॒ इति॑ प्रति॒ऽपदे॑। त्वा॒। अ॒नु॒पदित्य॑नु॒ऽपत्। अ॒सि॒। अ॒नु॒पद॒ इत्य॑नु॒ऽपदे॑। त्वा॒। स॒म्पदिति॑ स॒म्ऽपत्। अ॒सि॒। स॒म्पद॒ इति॑ स॒म्ऽपदे॑। त्वा॒। तेजः॑। अ॒सि॒। तेज॑से। त्वा॒ ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतिपदसि प्रतिपदे त्वानुपदस्यनुपदे त्वासम्पदसि सम्पदे त्वा तेजोसि तेजसे त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतिपदिति प्रतिऽपत्। असि। प्रतिपद इति प्रतिऽपदे। त्वा। अनुपदित्यनुऽपत्। असि। अनुपद इत्यनुऽपदे। त्वा। सम्पदिति सम्ऽपत्। असि। सम्पद इति सम्ऽपदे। त्वा। तेजः। असि। तेजसे। त्वा॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 8
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    अन्वयः - हे पुरुषार्थिनि विदुषि स्त्रि! यतस्त्वं प्रतिपदिवासि तस्यै प्रतिपदे त्वा याऽनुपदिवासि तस्या अनुपदे त्वा या संपदिवासि तस्यै संपदे त्वा या तेज इवासि तस्यै तेजसे त्वा त्वां स्वीकरोमि॥८॥

    पदार्थः -
    (प्रतिपत्) प्रतिपद्यते प्राप्यते या सा (असि) (प्रतिपदे) ऐश्वर्याय (त्वा) त्वाम् (अनुपत्) अनु पश्चात् प्राप्यते या सा (असि) (अनुपदे) पश्चात् प्राप्तव्याय (त्वा) (सम्पत्) सम्यक् प्राप्यते या सा (असि) (सम्पदे) ऐश्वर्याय (त्वा) (तेजः) प्रागल्भ्यम् (असि) (तेजसे) (त्वा) त्वाम्॥८॥

    भावार्थः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वसुखसिद्धये तुल्यगुणकर्मस्वभावैः स्त्रीपुरुषैः स्वयंवरेण विवाहेन परस्परं स्वीकृत्यानन्दितव्यम्॥८॥

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