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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1602
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हवींषि वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
गा꣢व꣣ उ꣡प꣢ वदाव꣣टे꣢ म꣣ही꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ र꣣प्सु꣡दा꣢ । उ꣣भा꣡ कर्णा꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡या꣢ ॥१६०२॥
स्वर सहित पद पाठगा꣡वः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । व꣣द । अवटे꣢ । म꣣ही꣡इति꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । र꣣प्सु꣡दा꣢ । र꣣प्सु꣢ । दा꣣ । उ꣡भा । क꣡र्णा꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡या꣢ ॥१६०२॥
स्वर रहित मन्त्र
गाव उप वदावटे मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥१६०२॥
स्वर रहित पद पाठ
गावः । उप । वद । अवटे । महीइति । यज्ञस्य । रप्सुदा । रप्सु । दा । उभा । कर्णा । हिरण्यया ॥१६०२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1602
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ११७ क्रमाङ्क पर पहले की जा चुकी है। यहाँ अन्य व्याख्या देते हैं।
पदार्थ -
हे मानव ! उपासना-यज्ञ में तू (अवटे) आनन्द-रसों के कूप अग्नि परमेश्वर के विषय में (गावः) वेद-वाणियों को (उपवद) समीपता के साथ उच्चारण कर। (मही) महान् द्यावापृथिवी(यज्ञस्य) पूजनीय परमात्मा की (रप्सु-दा) कीर्ति गान करनेवाली हैं, (उभा) जो दोनों (कर्णा) विविध ऐश्वर्यों को बिखेरनेवाली तथा (हिरण्यया) ज्योतिर्मय हैं ॥१॥
भावार्थ - ऐश्वर्यों से परिपूर्ण देदीप्यमान द्यु-लोक और पृथिवी-लोक जगदीश्वर की ही महिमा का गान करते हैं ॥१॥
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