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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    सूक्त - सिन्धुद्वीपम् देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त

    यो वः॑ शि॒वत॑मो॒ रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑। उ॑श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । व॒: । शि॒वऽत॑म: । रस॑: । तस्य॑ । भा॒ज॒य॒त॒ । इ॒ह । न॒: ।उ॒श॒ती:ऽइ॑व । मा॒तर॑: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । व: । शिवऽतम: । रस: । तस्य । भाजयत । इह । न: ।उशती:ऽइव । मातर: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [हे मनुष्यो !] (यः) जो (वः) तुम्हारा (शिवतमः) अत्यन्त सुखकारी (रसः) रस है, (इह) यहाँ [संसार में] (नः) हमको (तस्य) उसका (भाजयत) भागी करो, (इव) जैसे (उशतीः) प्रीति करती हुई (मातरः) माताएँ ॥२॥

    भावार्थ - जैसे माताएँ प्रीति के साथ सन्तानों को सुख देती हैं और जैसे जल संसार में उपकारी पदार्थ है, वैसे ही सब मनुष्य परस्पर उपकारी बन कर लाभ उठावें और आनन्द भोगें ॥२॥

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