Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 5

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - सिन्धुद्वीपम् देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त

    आपो॒ हि ष्ठा म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ ऊ॒र्जे द॑धातन। म॒हे रणा॑य॒ चक्ष॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । हि । स्थ । म॒य:॒ऽभुव॑: । ता: । न॒: । ऊ॒र्जे । द॒धा॒त॒न॒ ।म॒हे । रणा॑य । चक्ष॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । हि । स्थ । मय:ऽभुव: । ता: । न: । ऊर्जे । दधातन ।महे । रणाय । चक्षसे ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (आपः) हे जलो ! [जल के समान उपकारी पुरुषों] (हि) निश्चय करके (मयोभुवः) सुखकारक (स्थ) होते हो, (ताः) सो तुम (नः) हमको (ऊर्जे) पराक्रम वा अन्न के लिये, (महे) बड़े-बड़े (रणाय) संग्राम वा रमण के लिये और (चक्षसे) [ईश्वर के] दर्शन के लिये (दधातन) पुष्ट करो ॥१॥

    भावार्थ - जैसे जल खान, पान, खेती, बाड़ी, कला, यन्त्र आदि में उपकारी होता है, वैसे मनुष्यों को अन्न, बल और विद्या की वृद्धि से परस्पर वृद्धि करनी चाहिये ॥१॥ मन्त्र १-३ ऋग्वेद १०।९।१-३ ॥ यजुर्वेद ११।५०-५२, तथा ३६।१४-१६ सामवेद उत्तरार्चिक प्रपा० ९ अर्धप्र० २ सू० १० ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top