Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 4

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 4
    सूक्त - सिन्धुद्वीपम् देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त

    अ॒प्स्व॑१न्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम्। अ॒पामु॒त प्रश॑स्तिभि॒रश्वा॒ भव॑थ वा॒जिनो॒ गावो॑ भवथ वा॒जिनीः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । अ॒मृत॑म् । अ॒प्ऽसु । भे॒ष॒जम् । अ॒पाम् । उ॒त । प्रश॑स्तिऽभिः । अश्वा॑: । भव॑थ । वा॒जिन॑: । गाव॑: । भ॒व॒थ॒ । वा॒जिनी॑: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्स्व१न्तरमृतमप्सु भेषजम्। अपामुत प्रशस्तिभिरश्वा भवथ वाजिनो गावो भवथ वाजिनीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्ऽसु । अन्तः । अमृतम् । अप्ऽसु । भेषजम् । अपाम् । उत । प्रशस्तिऽभिः । अश्वा: । भवथ । वाजिन: । गाव: । भवथ । वाजिनी: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (अप्सु अन्तः) जल के बीच में (अमृतम्) रोगनिवारक अमृत रस है और (अप्सु) जल में (भेषजम्) भय जीतनेवाला औषध है। (उत) और (अपाम्) जल के (प्रशस्तिभिः) उत्तम गुणों से (अश्वाः) हे घोड़ो तुम, (वाजिनः) वेगवाले (भवथ) होते हो, (गावः) हे गौओ, तुम (वाजिनीः=न्यः) वेगवाली (भवथ) होती हो ॥४॥

    भावार्थ - जल से रोगनिवारक और पुष्टिवर्धक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। जैसे जल से उत्पन्न हुए घास आदि से गौएँ और घोड़े बलवान् होकर उपकारी होते हैं, उसी प्रकार सब मनुष्य अन्न आदि के सेवन से पुष्ट रह कर और ईश्वर की महिमा जानकर सदा परस्पर उपकारी बनें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १।२३।१९, है ॥ भगवान् मनु ने कहा है−अ० १।८ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः। अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥१॥ उस [परमात्मा] ने ध्यान करके अपने शरीर [प्रकृति] से अनेक प्रजाओं के उत्पन्न करने की इच्छा करते हुए पहिले (अपः) जल को ही उत्पन्न किया और उस में बीज को छोड़ दिया ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top