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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - सिन्धुद्वीपम् देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त

    अ॒मूर्या उप॒ सूर्ये॒ याभि॑र्वा॒ सूर्यः॑ स॒ह। ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मूः । याः । उप॑ । सूर्ये॑ । याभि॑: । वा॒ । सूर्य॑: । स॒ह । ताः । नः॒ । हि॒न्व॒न्तु॒ । अ॒ध्व॒रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमूः । याः । उप । सूर्ये । याभि: । वा । सूर्य: । सह । ताः । नः । हिन्वन्तु । अध्वरम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अमूः) वह (याः) जो [माता और बहिनें] (उप=उपेत्य) समीप होकर (सूर्ये) सूर्य के प्रकाश में रहती हैं, (वा) और (याभिः सह) जिन [माता और बहिनों] के साथ (सूर्यः) सूर्य का प्रकाश है। (ताः) वह (नः) हमारे (अध्वरम्) उत्तम मार्ग देनेहारे वा हिंसारहित कर्म को (हिन्वन्तु) सिद्ध करें वा बढ़ावें ॥२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में दो बातों का वर्णन है, एक यह कि किसी में उत्तम गुणों का होना, दूसरे यह कि उन उत्तम गुणों का फैलाना ॥२॥ १−जो नररत्न माता और भगिनियों के समान परिश्रमी और उपकारी होकर सूर्यरूप विद्या के प्रकाश में विराजते हैं और जिनके सत्य अभ्यास से सूर्यवत् विद्या का प्रकाश संसार में फैलता है, वह तपस्वी पुण्यात्मा संसार में सुख की वृद्धि करते हैं ॥ २−जो (अमूः) इत्यादि स्त्रीलिङ्ग शब्दों का संबन्ध मन्त्र ३ के (आपः) शब्द से माना जावे तो यह भावार्थ है। पहिले जल मूर्त्तिमान् पदार्थों से किरणों द्वारा सूर्यमण्डल में [जहाँ तक सूर्य का प्रकाश है] जाता है, फिर वही जल सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न होने के कारण दिव्य बनकर भूमि आदि पदार्थों के आकर्षण से बरसता और महा उपकारी होता है। इस जल के समान, विद्वान् पुरुष ब्रह्मचर्य आदि तप करके संसार का उपकार करते हैं ॥

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