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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपम् देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त
    162

    अ॒मूर्या उप॒ सूर्ये॒ याभि॑र्वा॒ सूर्यः॑ स॒ह। ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मूः । याः । उप॑ । सूर्ये॑ । याभि॑: । वा॒ । सूर्य॑: । स॒ह । ताः । नः॒ । हि॒न्व॒न्तु॒ । अ॒ध्व॒रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमूः । याः । उप । सूर्ये । याभि: । वा । सूर्य: । सह । ताः । नः । हिन्वन्तु । अध्वरम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उपकार के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अमूः) वह (याः) जो [माता और बहिनें] (उप=उपेत्य) समीप होकर (सूर्ये) सूर्य के प्रकाश में रहती हैं, (वा) और (याभिः सह) जिन [माता और बहिनों] के साथ (सूर्यः) सूर्य का प्रकाश है। (ताः) वह (नः) हमारे (अध्वरम्) उत्तम मार्ग देनेहारे वा हिंसारहित कर्म को (हिन्वन्तु) सिद्ध करें वा बढ़ावें ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो बातों का वर्णन है, एक यह कि किसी में उत्तम गुणों का होना, दूसरे यह कि उन उत्तम गुणों का फैलाना ॥२॥ १−जो नररत्न माता और भगिनियों के समान परिश्रमी और उपकारी होकर सूर्यरूप विद्या के प्रकाश में विराजते हैं और जिनके सत्य अभ्यास से सूर्यवत् विद्या का प्रकाश संसार में फैलता है, वह तपस्वी पुण्यात्मा संसार में सुख की वृद्धि करते हैं ॥ २−जो (अमूः) इत्यादि स्त्रीलिङ्ग शब्दों का संबन्ध मन्त्र ३ के (आपः) शब्द से माना जावे तो यह भावार्थ है। पहिले जल मूर्त्तिमान् पदार्थों से किरणों द्वारा सूर्यमण्डल में [जहाँ तक सूर्य का प्रकाश है] जाता है, फिर वही जल सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न होने के कारण दिव्य बनकर भूमि आदि पदार्थों के आकर्षण से बरसता और महा उपकारी होता है। इस जल के समान, विद्वान् पुरुष ब्रह्मचर्य आदि तप करके संसार का उपकार करते हैं ॥

    टिप्पणी

    २−अमूः। अदस्, स्त्रियां जस्। ताः परिदृश्यमानाः। याः। अम्बयो जामयश्च, मं० १। यद्वा। आपः, मं० ३। उप। समीपे, उपेत्य। आधिक्येन। आदरेण। सूर्ये। १।३।५। आदित्यलोके। सूर्यवद् ज्ञानप्रकाशे। सूर्यप्रकाशे। याभिः। अम्बिजामिभिः। अद्भिः। वा। समुच्चये। विकल्पे। सूर्यः। १।३।५। सवितृलोकः। तद्वद् ज्ञानप्रकाशः। सवितृप्रकाशः। सह। षह क्षमायाम्-अच्। साहित्ये। नः। अस्माकम्। हिन्वन्तु। हिवि प्रीणने, लोट्। इदितो नुम्धातोः। पा० ७।१।५८। इति इदित्त्वात् नुम्। अथवा। हि वर्धने स्वादिः−लोट्। प्रीणयन्तु, साधयन्तु। वर्धयन्तु अध्वरम्। म० १। सन्मार्गदातृ हिंसारहितं वा कर्म। यज्ञम् ॥

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    विषय

    सुर्य-किरणों के सम्पर्कवाला

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की नदियों के जल का सङ्केत करते हुए कहते हैं कि (अमू:) = वे (या:) = जो जल(उप सूर्ये) = सूर्य के समीप हैं, (वा) = अथवा (सूर्यः याभिः सह) = सूर्य जिनके साथ है, (ता:) = वे जल (न:) = हमारे (अध्वरम्) = यज्ञ को-यज्ञ के भाव को (हिन्वन्तु) = बढ़ाते [Promote further] हैं। २. सूर्य के सम्पर्क में स्थित जलों के इस गुण का कितना महत्त्व है कि वे प्रयुक्त होने पर हमारी यज्ञिय भावना की वृद्धि करते हैं। वे जल जो सदा अन्धकारवाले प्रदेश में होते हैं उनमें शरीर व मन को निर्दोष बनाने के गुणों में भी कमी आ जाती है। नदियों के जल का सदा यही महत्त्व है कि वे सदा सूर्य-किरणों के सम्पर्क में है, इससे उस जल के रोग-कृमियों का नाश हो जाता है और उनमें प्राणदायी तत्त्व की स्थापना हो जाती है।

    भावार्थ

    जल वही ठीक है जो सूर्य के सम्पर्क में है।

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    भाषार्थ

    (अमू:) वे (याः) जो आपः (उप सूर्ये) सूर्य में उपस्थित हैं, (वा) अथवा (याभिः) जिन भूमिष्ठ आपः के (सह) साथ (सूर्यः) सूर्य [रश्मियों द्वारा] उपस्थित है (ताः) वे द्विविध आपः (नः) हमारे (अध्वरम्) अहिंसा कर्म की (हिन्वन्तु) वृद्धि करें। अहिंसाकर्म=जलचिकित्सा द्वारा शरीर को हिंसारहित करना। हिन्वन्तु= हि वृद्धौ (स्वादिः)

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    विषय

    जलों का वर्णन

    भावार्थ

    ( अमृः ) ये वृष्टि जल ( याः ) जो (ऊप सूर्ये) सूर्य के आश्रय, उसकी किरणों द्वारा भूपृष्ठ से उठकर ऊपर चले जाते हैं और ( याभिः वा ) जिनके (सह) साथ (सूर्यः) उनका प्रेरक सूर्य विद्यमान है ( ताः ) वह ( नः ) हमारे (अध्वरं ) हिंसारहित प्राणियों के जीवनमय यज्ञ को ( हिन्वन्ति ) तृप्त करते हैं, चला रहे हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अपोनप्त्रीयं सूक्तम् । सिन्धुद्वीपः कृतिश्च ऋषी। सोम आपश्च देवता । १ - ३ गायत्रं छन्दः । ४, पुरस्ताद बृहती। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Water Treatment

    Meaning

    And may those waters which are close to the sun, and in the sun itself, with which the sun nourishes life, flow and advance our yajna of life with energy and enthusiasm without violence.

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    Translation

    May these streams of water which are contiguous to the Sun (in the sense that water is carried away by rays) and those waters with which the Sun is associated, bé propitious to our sacred work and worship. (Also Rg. 1-23.17)

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    Translation

    Those youjder waters which are near the Sun those where with is the sun, (The waters evaporated or and moistened through the vaporization and moisti fication) serve the purpose of life.

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    Translation

    These streams of water, which flow under the light of Sun or those wherewith the sun is joined, lend contentment to the yajna (sacrifice) of our life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−अमूः। अदस्, स्त्रियां जस्। ताः परिदृश्यमानाः। याः। अम्बयो जामयश्च, मं० १। यद्वा। आपः, मं० ३। उप। समीपे, उपेत्य। आधिक्येन। आदरेण। सूर्ये। १।३।५। आदित्यलोके। सूर्यवद् ज्ञानप्रकाशे। सूर्यप्रकाशे। याभिः। अम्बिजामिभिः। अद्भिः। वा। समुच्चये। विकल्पे। सूर्यः। १।३।५। सवितृलोकः। तद्वद् ज्ञानप्रकाशः। सवितृप्रकाशः। सह। षह क्षमायाम्-अच्। साहित्ये। नः। अस्माकम्। हिन्वन्तु। हिवि प्रीणने, लोट्। इदितो नुम्धातोः। पा० ७।१।५८। इति इदित्त्वात् नुम्। अथवा। हि वर्धने स्वादिः−लोट्। प्रीणयन्तु, साधयन्तु। वर्धयन्तु अध्वरम्। म० १। सन्मार्गदातृ हिंसारहितं वा कर्म। यज्ञम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অমূঃ) সেই (য়াঃ) যাহারা অর্থাৎ মাতা ও ভগিনীরা (উপ) নিকটে আসিয়া (সূৰ্য্যং) সূর্যলোকে অবস্থান করে (বা) এবং (তাঃ) তাহারা (নঃ) আমাদের (অধ্বরং) হিংসা শূন্য কর্মকে (হিন্বন্তু) সফল করুন।।

    भावार्थ

    সেই মাতা ও ভগিনীরা জ্ঞানালোকে অবস্থান করুন এবং আমাদের অহিংস কর্মকে সফল করুন।।
    যে পুরুষ মাতা ও ভগিনীর ন্যায় হিতকারী ও শ্রমশীল হইয়া তমোনাশক সূর্যবৎ বিদ্যার আলোকে অবস্থান করেন তিনি জ্ঞান রশ্মির বিস্তার করিয়া জগতে সুখ বৃদ্ধি করেন।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অমূৰ্য্যা উপ সূর্য়্যে য়াভির্বা সূৰ্য্যঃ সহ। তা নো হিন্বন্ত্বধ্বরম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    সিন্ধুদ্বীপঃ কৃতিৰ্বা। আপঃ। গায়ত্রী

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    मन्त्र विषय

    (পরস্পরোপকারোপদেশঃ) পরস্পরের উপকারের জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (অমূঃ) তাঁরা (যাঃ) যারা [মাতা ও বোন] (উপ=উপেত্য) সমীপে/নিকটে হয়ে (সূর্যে) সূর্যের প্রকাশে থাকে, (বা) এবং (যাভিঃ সহ) যে [মাতা ও বোন] এর সাথে (সূর্যঃ) সূর্যের প্রকাশ থাকে। (তাঃ) তাঁরা (নঃ) আমাদের (অধ্বরম্) উত্তম মার্গে প্রেরণকারী/উত্তম মার্গে পরিচালিত করে বা হিংসারহিত কর্ম (হিন্বন্তু) সিদ্ধ করে/করুক বা বৃদ্ধি করে/করুক ॥২॥

    भावार्थ

    এই মন্ত্রে দুটি বিষয়ের বর্ণনা রয়েছে, একটি হলো কারোর মধ্যে উত্তম গুণাবলীর উপস্থিতি, অপরটি হলো সেই উত্তম গুণাবলীর বিস্তার করা॥২॥ ১−যে নররত্ন মাতা ও বোনের সমান পরিশ্রমী এবং উপকারী হয়ে সূর্যরূপ বিদ্যার প্রকাশে বিরাজিত হয় এবং যাঁর সত্য অভ্যাসের দ্বারা সূর্যবৎ বিদ্যার প্রকাশ সংসারে বিস্তারিত হয়, সেই তপস্বী পুণ্যাত্মা সংসারে সুখের বৃদ্ধি করেন ॥ ২−যে (অমূঃ) ইত্যাদি স্ত্রীলিঙ্গ শব্দের সম্বন্ধিত মন্ত্র ৩ এর (আপঃ) শব্দ মানা হলে তবে এই ভাবার্থ হয়। প্রথমে জল মূর্ত্তিমান পদার্থ থেকে কিরণ দ্বারা সূর্যমণ্ডলে [যেখান পর্যন্ত সূর্যের প্রকাশ রয়েছে] যায়, আবার সেই জল সূর্যের কিরণ থেকে ছিন্ন-ভিন্ন হওয়ার কারণে দিব্য হয়ে ভূমি আদি পদার্থের আকর্ষণে বর্ষিত এবং মহা উপকারী হয়। এই জলের সমান, বিদ্বান্ পুরুষ ব্রহ্মচর্য আদি তপস্যা করে সংসারের উপকার করে ॥

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    भाषार्थ

    (অমূঃ) তা (যাঃ) যে আপঃ (উপ সূর্যে) সূর্যে বর্তমান/উপস্থিত আছে, (বা) অথবা (যাভিঃ) যে ভূমিষ্ঠ আপঃ এর (সহ) সাথে (সূর্যঃ) সূর্য [রশ্মির দ্বারা] বর্তমান/উপস্থিত আছে (তাঃ) সেই দ্বিবিধ আপঃ (নঃ) আমাদের (অধ্বরম্) অহিংসা কর্মের (হিন্বন্তু) বৃদ্ধি করুক। অহিংসাকর্ম=জলচিকিৎসা দ্বারা শরীরকে হিংসারহিত করা। হিন্বন্তু= হি বৃদ্ধৌ (স্বাদিঃ)

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    जल का महत्व

    Word Meaning

    (अमू: या: उप सूर्ये याभि: वा सूर्य: सह) दूर से आती सूर्य की किरणों और सूर्य के ताप से प्रभावित (ता: न: हिन्वन्तु अध्वरम्) वे जल हमारे जीवनमें उत्तम फल प्रदान कराते हैं.

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