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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपम् देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त
    153

    अ॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये॒ यत्र॒ गावः॒ पिब॑न्ति नः। सिन्धु॑भ्यः॒ कर्त्वं॑ ह॒विः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पः । दे॒वीः । उप॑ । ह्व॒ये॒ । यत्र॑ । गाव॑: । पिब॑न्ति । नः॒ । सिन्धु॑ऽभ्यः । कर्त्व॑म् । ह॒विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपः । देवीः । उप । ह्वये । यत्र । गाव: । पिबन्ति । नः । सिन्धुऽभ्यः । कर्त्वम् । हविः ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर उपकार के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्र) जिस जल में से (गावः) सूर्य की किरणों [वा गौएँ आदि जीव वा भूमि प्रदेश] (नः) हमारे लिये (हविः) देने वा लेने योग्य अन्न वा जल (कर्त्वम्) उत्पन्न करने को (सिन्धुभ्यः) बहनेवाले समुद्रों से (पिबन्ति) पान करती हैं। (देवीः) उस उत्तम गुणवाले (अपः) जल को (उप) आदर से (ह्वये) मैं बुलाता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    जल को सूर्य की किरणें समुद्र आदि से खींचती हैं, वह जल फिर बरस कर हमारे लिये अन्न आदिक पदार्थ उत्पन्न करके सुख देता है। अथवा गौ आदि सब प्राणी जल द्वारा उत्पन्न पदार्थों से सुखी होकर सबको सुखी करते हैं, वैसे ही हमको परस्पर सहायक और उपकारी होना चाहिये ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−अपः। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। इति अप्। अप् शब्दो नित्यस्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च। व्यापयित्रीः, जलधाराः। जलवत् उपकारिणः पुरुषान्। देवीः, नन्दिग्रहिपचादिभ्यः०। पा० ३।१।१२४। इति दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमद-स्वप्नकान्तिगतिषु−पचाद्यच्। ङीप्। दिव्याः, द्योतमानाः। ह्वये। अहमाह्वयामि। यत्र। यासु अप्सु। गावः १।२।३। धेनवः। उपलक्षणमेतत्। सर्वे जीवा इत्यर्थः। सूर्यकिरणः। भूलोकाः। पिबन्ति। पाघ्रा० इत्यादिना। पा० ७।३।७८। इति पा पाने-शपि पिबादेशः। पानं कुर्वन्ति। नः। अस्मदर्थम्। सिन्धुभ्यः स्यन्देः सम्प्रसारणं धश्च। उ० १।११। इति स्यन्दू स्रवणे-उ प्रत्ययः, दस्य धः सम्प्रसारणं च। स्यन्दनशीलेभ्यः समुद्रेभ्यः सकाशात्। कर्त्वम्। डुकृञ् करणे-तुम्। छान्दसं रूपम्। कर्तुम्। हविः। अर्चिशुचिहुसृपिछादिछर्दिभ्य इसिः। उ० २।१०८। इति। हु दानादानादनेषु-इसि। यद्वा। ह्वेञ् आह्वाने−इसि। हूयते दीयते गृह्यते वा तद् हविः। हव्यम्। अन्नम् आवाहनम्। उदकम्−निघं० १।१२ ॥

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    विषय

    उत्तम दूध, उत्तम अन्न

    पदार्थ

    १. मैं (देवी: अप:) = दिव्य गुणोंवाले जल को  (उपह्व्ये) = पुकारता हूँ-इन दिव्य गुणोंवाले जलों की प्राप्त के लिए प्रार्थना करता हूँ। (न:) = हमारी (गाव:) = गौएँ (यत्र) = यहाँ (पिबन्ति) = शुद्ध जल का पान करती हैं। शुद्ध जलों को पीकर ही तो वे दिव्य गुणयुक्त दूध देनेवाली होंगी। पेय-जल के गुण ही तो उनके दूध में आएँगे। २. इसके अतिरिक्त (सिन्धुभ्यः) = नदियों के द्वारा (हविः कर्वम्) = हव्य पदार्थों को उत्पन्न करने के लिए इन जलों की आराधना करता हूँ। दिव्य गुणवाले जलों से अन्न भी उत्तम उत्पन्न होता है। वृष्टिजल से उत्पन्न अन्न इसीलिए सर्वोत्तम होता है।

    भावार्थ

    दिव्य गुणयुक्त जलों के पान से गौओं का दूध भी उत्तम होता है और इस जल से उत्पन्न अन्न भी सात्त्विक होता है।

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    भाषार्थ

    (देवीः अपः) द्योतमान अर्थात् शुद्ध जल का (उपह्वये) उस स्थान के समीप मैं आह्वान करता हूँ, (यत्र) जिस स्थान में (न: गावः पिबन्ति) हमारी गौएँ जल पीती हैं, अर्थात् (सिन्धुभ्यः) स्यन्दनशील नदियों से (कर्त्वम्) काटा गया (हविः) उदक।

    टिप्पणी

    [कर्त्वम् = कृती छेदने (तुदादिः) + व: ( उणा० १।१५५)। हवि: उदकनाम (निघं० १।१२)। मन्त्रोक्ति नहरों के एञ्जीनियर की है, जोकि प्रवाहित नदियों से जल काटकर गोशाला तक पहुँचाता है]

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    विषय

    जलों का वर्णन

    भावार्थ

    ( देवीः ) दिव्यगुणयुक्त ( अपः ) जलधाराओं को ( उपह्वये ) वहां बुलाता हूं, उनको प्राप्त करता हूं, ( यत्र ) जहां, जिनमें से कि ( नः ) हमारी ( गावः ) गौएं और भूमियां ( पिबन्ति ) रस पान करती हैं, और सींची जाती हैं अतः ( सिन्धुभ्यः ) निरन्तर गतिशील, बहने वाली उन जल धाराओं से ( हविः * ) जल ( कर्त्त्वं ** ) काटना चाहिये अर्थात् काटकर लाना चाहिये ।

    टिप्पणी

    ‘हविः’ = जल, निघण्टु १ । १२ ॥ ‘कर्त्त्वम्’- कृती छेदने + त्वत् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अपोनप्त्रीयं सूक्तम् । सिन्धुद्वीपः कृतिश्च ऋषी। सोम आपश्च देवता । १ - ३ गायत्रं छन्दः । ४, पुरस्ताद बृहती। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Water Treatment

    Meaning

    I invoke those divine waters sucked up by the sun’s rays which shower for our rivers, where our lands and cows find nourishment and whereby we create holy materials for our yajna.

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    Translation

    I invoke the Lord for the divine waters which are enjoyed by the rays of the Sun. For these flowing streams, we offer our gratitude (to the Lord) (cf.Rg. 1.23.18)

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    Translation

    We obtain the rainy water from the firmament where the sun rays drink them; We also obtain flowing water from the rivers for our purpose.

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    Translation

    I praise the excellent waters, where our kine drink water should be cut from those streams.

    Footnote

    Water should be cut and brought through channels to irrigate our fields, for producing more food.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−अपः। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। इति अप्। अप् शब्दो नित्यस्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च। व्यापयित्रीः, जलधाराः। जलवत् उपकारिणः पुरुषान्। देवीः, नन्दिग्रहिपचादिभ्यः०। पा० ३।१।१२४। इति दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमद-स्वप्नकान्तिगतिषु−पचाद्यच्। ङीप्। दिव्याः, द्योतमानाः। ह्वये। अहमाह्वयामि। यत्र। यासु अप्सु। गावः १।२।३। धेनवः। उपलक्षणमेतत्। सर्वे जीवा इत्यर्थः। सूर्यकिरणः। भूलोकाः। पिबन्ति। पाघ्रा० इत्यादिना। पा० ७।३।७८। इति पा पाने-शपि पिबादेशः। पानं कुर्वन्ति। नः। अस्मदर्थम्। सिन्धुभ्यः स्यन्देः सम्प्रसारणं धश्च। उ० १।११। इति स्यन्दू स्रवणे-उ प्रत्ययः, दस्य धः सम्प्रसारणं च। स्यन्दनशीलेभ्यः समुद्रेभ्यः सकाशात्। कर्त्वम्। डुकृञ् करणे-तुम्। छान्दसं रूपम्। कर्तुम्। हविः। अर्चिशुचिहुसृपिछादिछर्दिभ्य इसिः। उ० २।१०८। इति। हु दानादानादनेषु-इसि। यद्वा। ह्वेञ् आह्वाने−इसि। हूयते दीयते गृह्यते वा तद् हविः। हव्यम्। अन्नम् आवाहनम्। उदकम्−निघं० १।१२ ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ত্র) যেখানে (গাবঃ) সূর্য রশ্মি সমূহ (নঃ) আমাদের জন্য (হবিঃ) দান ও গ্রহণ যোগ্য অন্ন বা জল (কর্তৃম্) উৎপন্ন করিতে (সিন্ধুভ্যঃ) প্রবহমান সমূদ্র হইতে (পিবন্তি) পান করে (দেবীঃ) সেই উত্তম গুণযুক্ত (অপঃ) জলকে (উপ) আদর পূর্বক (হ্বয়ে) আহ্বান করিতেছি।।

    भावार्थ

    আমাদের জন্য দান ও গ্রহণ যোগ্য অন্ন ও জল উৎপন্ন করিতে সূর্য রশ্মি প্রবহমান সমূদ্র হইতে যাহা পান করে সেই উত্তম গুণযুক্ত জলকে সাদরে গ্রহণ করিতেছি।।
    সূর্য কিরণ জলকে সমূদ্র হইতে আকর্ষণ করিয়া বর্ষণ দ্বারা আমাদের অনাদি সুখকর পদার্থ দান করে। আমাদিগকেও পরস্পরের প্রতি এইরূপ হিতকারী হইতে হইবে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অপো দেবী রুপহ্বয়ে য়ত্র গাবঃ পিবন্তি নঃ৷ সিন্ধুভ্যঃ কৰ্তৃং হবি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    সিন্ধুদ্বীপঃ কৃতিৰ্বা। আপঃ। গায়ত্রী

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    मन्त्र विषय

    (পরস্পরোপকারোপদেশঃ) পরস্পরের উপকারের জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যত্র) যে জল থেকে (গাবঃ) সূর্যের কিরণ [বা গোরু আদি জীব বা ভূমিপ্রদেশ] (নঃ) আমাদের জন্য (হবিঃ) আদানপ্রদান যোগ্য অন্ন বা জল (কর্ত্বম্) উৎপন্ন করার জন্য (সিন্ধুভ্যঃ) প্রবাহমান সমুদ্র থেকে (পিবন্তি) পান করে। (দেবীঃ) সেই উত্তম গুণবিশিষ্ট (অপঃ) জলকে (উপ) আদরের সহিত (হ্বয়ে) আমি আহ্বান করি ॥৩॥

    भावार्थ

    জলকে সূর্যের কিরণ সমুদ্র আদি থেকে বাষ্পায়িত করে গ্রহণ করে, সেই জল আবার বর্ষিত হয়ে আমাদের জন্য অন্ন আদি পদার্থ উৎপন্ন করে সুখ দেয়। অথবা গোরু আদি সমস্ত প্রাণী জল দ্বারা উৎপন্ন পদার্থের মাধ্যমে সুখী হয়ে সকলকে সুখী করে, সেভাবেই আমাদের পরস্পরের সহায়ক এবং উপকারী হওয়া দরকার ॥৩।।

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    भाषार्थ

    (দেবীঃ অপঃ) দ্যোতমান অর্থাৎ শুদ্ধ জলের (উপহ্বয়ে) সেই স্থানের সমীপে আমি আহ্বান করছি/করি, (যত্র) যে স্থানে (নঃ গাবঃ পিবন্তি) আমাদের গাভীরা জল পান করে, অর্থাৎ (সিন্ধুভ্যঃ) স্যন্দনশীল নদী থেকে (কর্ত্বম্) কর্তিত (হবিঃ) উদক।

    टिप्पणी

    [কর্ত্বম্ = কৃতী ছেদনে (তুদাদিঃ) + বঃ (উণা০ ১।১৫৫)। হবিঃ উদকনাম (নিঘং০ ১।১২)। মন্ত্রোক্তি খালের ইঞ্জিনিয়ারের/প্রযুক্তিবিদ-এর, যে প্রবাহিত নদী থেকে জল কেটে গোশালা পর্যন্ত পৌঁছায়]

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    जल का महत्व

    Word Meaning

    जहां हमारी गौएं जल पीती हैं वहां दिव्य गुण युक्त जल उपलब्ध हों. नदियों को स्वच्छ रखने के लिए हम यज्ञ करें- अभियान करें.

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