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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
    सूक्त - सिन्धुद्वीपं कृतिः, अथवा अथर्वा देवता - अपांनपात् सोम आपश्च देवताः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - जल चिकित्सा सूक्त

    आपः॑ पृणी॒त भे॑ष॒जं वरू॑थं त॒न्वे॑३ मम॑। ज्योक्च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । पृ॒णी॒त । भे॒ष॒जम् । वरू॑थम् । त॒न्वे । मम॑ । ज्योक् । च॒ । सूर्य॑म् । दृ॒शे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे३ मम। ज्योक्च सूर्यं दृशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । पृणीत । भेषजम् । वरूथम् । तन्वे । मम । ज्योक् । च । सूर्यम् । दृशे ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (आपः) हे व्यापनशील जलो ! [जलसमान उपकारी पुरुषो] (मम) मेरे (तन्वे) शरीर के लिये (च) और (ज्योक्) बहुत काल तक (सूर्यम्) चलने वा चलानेवाले सूर्य को (दृशे) देखने के लिये (वरूथम्) कवचरूप (भेषजम्) भयनिवारक औषध को (पृणीत) पूर्ण करो ॥३॥

    भावार्थ - जैसे युद्ध में योद्धा की रक्षा झिलम से होती है, वैसे ही जलसमान उपकारी पुरुष परस्पर सहायक होकर सबका जीवन आनन्द से बढ़ाते हैं ॥३॥

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