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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    या ते॑ प्राण प्रि॒या त॒नूर्यो ते॑ प्राण॒ प्रेय॑सी। अथो॒ यद्भे॑ष॒जं तव॒ तस्य॑ नो धेहि जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । ते॒ । प्रा॒ण॒ । प्रि॒या । त॒नू: । यो इति॑ । ते॒ । प्रा॒ण॒ । प्रेय॑सी । अथो॒ इति॑ । यत् । भे॒ष॒जम् । तव॑ । तस्य॑ । न॒: । धे॒हि॒ । जी॒वसे॑ ॥६.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ते प्राण प्रिया तनूर्यो ते प्राण प्रेयसी। अथो यद्भेषजं तव तस्य नो धेहि जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । ते । प्राण । प्रिया । तनू: । यो इति । ते । प्राण । प्रेयसी । अथो इति । यत् । भेषजम् । तव । तस्य । न: । धेहि । जीवसे ॥६.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    (प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (ते) तेरी (या) जो (प्रिया) प्रीति करनेवाली (यो) और जो, (प्राण) हे प्राण ! (ते) तेरी (प्रेयसी) अधिक प्रीति करनेवाली (तनूः) उपकार क्रिया है। (अथो) और भी (यत्) जो (तव) तेरा (भेषजम्) भयनिवारक कर्म है, (तस्य) उसका (नः) हमारे (जीवसे) जीवन के लिये (धेहि) दान कर ॥९॥

    भावार्थ - जो मनुष्य परमेश्वर के उपकारों को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं, वह अपना जीवन बढ़ाते हैं ॥९॥

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