अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
शं नः॒ सूर्य॑ उरु॒चक्षा॒ उदे॑तु॒ शं नो॑ भवन्तु प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः। शं नः॒ पर्व॑ता ध्रु॒वयो॑ भवन्तु॒ शं नः॒ सिन्ध॑वः॒ शमु॑ स॒न्त्वापः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशम्। नः॒। सूर्यः॑। उ॒रु॒ऽचक्षाः॑। उत्। ए॒तु॒। शम्। नः॒। भ॒व॒न्तु॒। प्र॒ऽदिशः॑। चत॑स्रः। शम्। नः॒। पर्व॑ताः। ध्रु॒वयः॑। भ॒व॒न्तु॒। शम्। नः॒। सिन्ध॑वः। शम्। ऊं॒ इति॑। स॒न्तु॒। आपः॑ ॥१०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नो भवन्तु प्रदिशश्चतस्रः। शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः ॥
स्वर रहित पद पाठशम्। नः। सूर्यः। उरुऽचक्षाः। उत्। एतु। शम्। नः। भवन्तु। प्रऽदिशः। चतस्रः। शम्। नः। पर्वताः। ध्रुवयः। भवन्तु। शम्। नः। सिन्धवः। शम्। ऊं इति। सन्तु। आपः ॥१०.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 10; मन्त्र » 8
विषय - सृष्टि के पदार्थों से उपकार लेने का उपदेश।
पदार्थ -
(उरुचक्षाः) दूर तक दिखानेवाला (सूर्यः) सूर्य (नः) हमें (शम्) सुखदायक (उत् एतु) उदय हो, (चतस्रः) चारों (प्रदिश) बड़ी दिशाएँ (नः) हमें (शम्) सुखदायक (भवन्तु) होवें। (ध्रुवयः) दृढ़ (पर्वताः) पहाड़ (नः) हमें (शम्) सुखदायक (भवन्तु) हों, (सिन्धवः) समुद्र वा नदियाँ (नः) हमें (शम्) सुखदायक हों, (उ) और (आपः) जल [वा प्राण] (शम्) सुखदायक (सन्तु) हों ॥८॥
भावार्थ - जो मनुष्य विद्याबल से सूर्य के प्रकाश के समान सब दिशाओं को खोजते, पहाड़ों पर जाते, और नदियों को पार करते और कूप, वृष्टि आदि के जलों से खेती शिल्प आदि में काम लेते हैं, वे संसार में कीर्तिमान् होते हैं ॥८॥
टिप्पणी -
८−(शम्) सुखप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (सूर्यः) रविः (उरुचक्षाः) चक्षेर्बहुलं शिच्च। उ० ४।२३३। उरु+चक्षिङ् दर्शने-असि। विस्तीर्णं चक्षो दर्शनं यस्मात् सः (उदेतु) उदयं गच्छतु (शम्) (नः) (भवन्तु) (प्रदिशः) प्रकृष्टाः पूर्वादयो दिशः (चतस्रः) (शम्) (नः) (पर्वताः) शैलाः (ध्रुवयः) भुजेः किच्च। उ० ४।१४२। ध्रु स्थैर्ये-इ प्रत्ययः कित्। स्थिराः (भवन्तु) (शम्) (नः) (सिन्धवः) समुद्रा नद्यो वा (शम्) (उ) (सन्तु) (आपः) जलानि प्राणा वा ॥