अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुब्गर्भा पङ्क्तिः
सूक्तम् - शर्म सूक्त
च॒न्द्रमा॒ नक्ष॑त्रै॒रुद॑क्राम॒त्तां पुरं॒ प्र ण॑यामि वः। तामा वि॑शत॒ तां प्र वि॑शत॒ सा वः॒ शर्म॑ च॒ वर्म॑ च यच्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठच॒न्द्रमाः॑। नक्ष॑त्रैः। उत्। अ॒क्रा॒म॒त्। ताम्। पुर॑म्। प्र। न॒या॒मि॒। वः॒। ताम्।आ।वि॒श॒त॒। ताम्। प्र। वि॒श॒त॒। सा। वः॒। शर्म॑। च॒। वर्म॑। च॒। य॒च्छ॒तु॒ ॥१९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
चन्द्रमा नक्षत्रैरुदक्रामत्तां पुरं प्र णयामि वः। तामा विशत तां प्र विशत सा वः शर्म च वर्म च यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठचन्द्रमाः। नक्षत्रैः। उत्। अक्रामत्। ताम्। पुरम्। प्र। नयामि। वः। ताम्।आ।विशत। ताम्। प्र। विशत। सा। वः। शर्म। च। वर्म। च। यच्छतु ॥१९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
विषय - रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ -
(चन्द्रमाः) चन्द्रमा (नक्षत्रैः) नक्षत्रों के साथ (उत् अक्रामत्) ऊँचा चढ़ा है, (ताम्) उस (पुरम्) अग्रगामिनी शक्ति...... [मन्त्र १] ॥४॥
भावार्थ - चन्द्रमा और नक्षत्रों के विषय में सू०७ और सूक्त ८ मन्त्र १, २ देखो। मनुष्य चन्द्रमा के समान परमात्मा के नियम में चलकर परोपकार करे ॥४॥
टिप्पणी -
४−(चन्द्रमाः) चन्द्रमाह्लादं माति निर्मिमीते सः। आह्लादकश्चन्द्रलोकः (नक्षत्रैः) गमनशीलैस्तारागणैः पश्यत। सूक्तम् ७ तथा ८ म०१, २। अन्यद् गतम् ॥