अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 11
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - एकावसानार्च्युष्णिक्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
ये दे॑वा दि॒व्येका॑दश॒ स्थ ते॑ देवासो ह॒विरि॒दं जु॑षध्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठये। दे॒वाः॒। दि॒वि। एका॑दश। स्थ। ते। दे॒वा॒सः॒। ह॒विः। इ॒दम्। जु॒ष॒ध्व॒म् ॥२७.११॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवा दिव्येकादश स्थ ते देवासो हविरिदं जुषध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठये। देवाः। दिवि। एकादश। स्थ। ते। देवासः। हविः। इदम्। जुषध्वम् ॥२७.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 11
विषय - आशीर्वाद देने का उपदेश।
पदार्थ -
(देवाः) हे विद्वानो ! (ये) जो तुम (दिवि) सूर्यलोक में (एकादश) ग्यारह [प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय, दस प्राण और ग्यारहवें जीवात्मा के समान] (स्थ) हो, (देवासः) हे विद्वानो ! (ते) वे तुम (इदम्) इस (हविः) ग्रहणयोग्य वस्तु [वचन] को (जुषध्वम्) सेवन करो ॥११॥
भावार्थ - जैसे सूर्यादि लोकों में सब पदार्थ स्थित रहकर अपना-अपना कर्तव्य कर रहे हैं, वैसे ही मनुष्यों को ईश्वर और वेद में दृढ़ रहकर अपने कर्तव्य में परम निष्ठा रखनी चाहिये ॥११-१३॥
टिप्पणी -
मन्त्र ११-१३ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-१।१३९।-११ और यजुर्वेद ७।१९॥११−(ये) जे यूयम् (देवाः) हे विद्वांसः (दिवि) सूर्यलोके (एकादश) दयानन्दभाष्ये, यजु०७।१९। प्राणापानव्यानसमानौदाननागकूर्मकृकलदेवदत्तधनञ्जया इति दश प्राणा आत्मैकादश−इत्येतैः समानाः (स्थ) भवथ (ते) ते यूयम् (देवासः) हे विद्वांसः (हविः) ग्राह्यं वस्तु। वचनम् (इदम्) (जुषध्वम्) सेवध्वम् ॥