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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    त्रीन्नाकां॒स्त्रीन्स॑मु॒द्रांस्त्रीन्ब्र॒ध्नांस्त्रीन्वै॑ष्ट॒पान्। त्रीन्मा॑त॒रिश्व॑न॒स्त्रीन्त्सूर्या॑न्गो॒प्तॄन्क॑ल्पयामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीन्। नाका॑न्। त्रीन्। स॒मु॒द्रान्। त्रीन्। ब्र॒ध्नान्। त्रीन्। वै॒ष्ट॒पान्। त्रीन्। मा॒त॒रिश्व॑नः। त्रीन्। सूर्या॑न्। गो॒प्तॄन्। क॒ल्प॒या॒मि॒। ते॒ ॥२७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीन्नाकांस्त्रीन्समुद्रांस्त्रीन्ब्रध्नांस्त्रीन्वैष्टपान्। त्रीन्मातरिश्वनस्त्रीन्त्सूर्यान्गोप्तॄन्कल्पयामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीन्। नाकान्। त्रीन्। समुद्रान्। त्रीन्। ब्रध्नान्। त्रीन्। वैष्टपान्। त्रीन्। मातरिश्वनः। त्रीन्। सूर्यान्। गोप्तॄन्। कल्पयामि। ते ॥२७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (त्रीन्) तीन [आत्मा, मन और शरीर सम्बन्धी] (नाकान्) सुखों को, (त्रीन्) तीन [ऊपर, नीचे और मध्य में वर्तमान] (समुद्रान्) अन्तरिक्षों को, (त्रीन्) तीन [कर्म, उपासना और ज्ञान] (ब्रध्नान्) बड़े व्यवहारों को, (त्रीन्) तीन [स्थान, नाम और जन्म वा जातिवाले] (वैष्टपान्) संसार निवासियों को, (त्रीन्) तीन [ऊपर नीचे और तिरछे चलनेवाले] (मातरिश्वनः) आकाशगामी पवनों को, और (त्रीन्) तीन [वृष्टि, अन्नोत्पत्ति और पुष्टि करनेवाले] (सूर्यान्) सूर्य [के तापों] को (ते) तेरे (गोप्तॄन्) रक्षक (कल्पयामि) मैं बनाता हूँ ॥४॥

    भावार्थ - जो मनुष्य पदार्थों के तत्त्वों को यथावत् समझकर उपयोग में लाते हैं, वे उन्नति करते हैं ॥४॥

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