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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    आयु॑षायु॒ष्कृतां॑ जी॒वायु॑ष्माञ्जीव॒ मा मृ॑थाः। प्रा॒णेना॑त्म॒न्वतां॑ जीव मा मृ॒त्योरुद॑गा॒ वश॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑षा। आ॒युः॒ऽकृता॑म्। जी॒व॒। आयु॑ष्मान्। जी॒व॒। मा। मृ॒थाः॒। प्रा॒णेन॑। आ॒त्म॒न्ऽवता॑म्। जी॒व॒। मा। मृ॒त्योः। उत्। अ॒गाः॒। वश॑म् ॥२७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुषायुष्कृतां जीवायुष्माञ्जीव मा मृथाः। प्राणेनात्मन्वतां जीव मा मृत्योरुदगा वशम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयुषा। आयुःऽकृताम्। जीव। आयुष्मान्। जीव। मा। मृथाः। प्राणेन। आत्मन्ऽवताम्। जीव। मा। मृत्योः। उत्। अगाः। वशम् ॥२७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (आयुष्कृताम्) जीवन बनानेवाले [विद्वानों] के (आयुषा) जीवन के साथ (जीव) तू जीवित रह, (आयुष्मान्) उत्तम जीवनवाला होकर (जीव) तू जीवित रह, (मा मृथाः) तू मत मरे। (आत्मन्वताम्) आत्मावालों के (प्राणेन) प्राण [जीवनसामर्थ्य] से (जीव) तू जीवित रह (मृत्योः) मृत्यु के (वशम्) वश में (मा उत् अगाः) मत जा ॥८॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि बड़े जितेन्द्रिय पुरुषार्थी महात्माओं के समान अपने जीवन को पुरुषार्थी बनाकर यशस्वी होवें ॥८॥

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