अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
सूक्त - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
यो नो॑ अ॒ग्निर्गार्ह॑पत्यः पशू॒नाम॑धि॒पा अस॑त्। औदु॑म्बरो॒ वृषा॑ म॒णिः सं मा॑ सृजतु पु॒ष्ट्या ॥
स्वर सहित पद पाठयः। नः॒। अ॒ग्निः। गार्ह॑ऽपत्यः। प॒शू॒नाम्। अ॒धि॒ऽपाः। अस॑त्। औदु॑म्बरः। वृषा॑। म॒णिः। सः। मा॒। सृ॒ज॒तु॒। पु॒ष्ट्या ॥३१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो अग्निर्गार्हपत्यः पशूनामधिपा असत्। औदुम्बरो वृषा मणिः सं मा सृजतु पुष्ट्या ॥
स्वर रहित पद पाठयः। नः। अग्निः। गार्हऽपत्यः। पशूनाम्। अधिऽपाः। असत्। औदुम्बरः। वृषा। मणिः। सः। मा। सृजतु। पुष्ट्या ॥३१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
विषय - ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
(यः) जो (गार्हपत्यः) गृहपति की स्थापित (अग्निः) अग्नि [के समान तेजस्वी परमेश्वर] (नः) हमारे (पशूनाम्) प्राणियों का (अधिपाः) बड़ा स्वामी (असत्) है। (सः) वही (औदुम्बरः) संघटन चाहनेवाला, (मणिः) श्रेष्ठ, (वृषा) वीर्यवान् [परमेश्वर] (मा) मुझको (पुष्ट्या) वृद्धि के साथ (सृजतु) संयुक्त करे ॥२॥
भावार्थ - सब मनुष्य परमात्मा की उपासना करके मनुष्य आदि प्राणियों से वृद्धि करें ॥२॥
टिप्पणी -
२−(यः) परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी परमात्मा (गार्हपत्यः) गृहपतिना संयुक्तः स्थापितः (पशूनाम्) प्राणिनाम् (अधिपाः) अधि+पा रक्षणे-विच्। महाराजः (असत्) लडर्थे लेट्। अस्ति (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (वृषा) वीर्यवान् (मणिः) प्रशस्तः (सः) परमेश्वरः (मा) माम् (सृजतु) संयोजयतु (पुष्ट्या) वृद्ध्या ॥