अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
सूक्त - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
अ॒हं प॑शू॒नाम॑धि॒पा असा॑नि॒ मयि॑ पु॒ष्टं पु॑ष्ट॒पति॑र्दधातु। मह्य॒मौदु॑म्बरो म॒णिर्द्रवि॑णानि॒ नि य॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम्। प॒शू॒नाम्। अ॒धि॒ऽपाः। अ॒सा॒नि॒। मयि॑। पु॒ष्टम्। पु॒ष्ट॒ऽपतिः॑। द॒धा॒तु॒। मह्य॑म्। औदु॑म्बरः। म॒णिः। द्रवि॑णानि। नि। य॒च्छ॒तु॒ ॥३१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं पशूनामधिपा असानि मयि पुष्टं पुष्टपतिर्दधातु। मह्यमौदुम्बरो मणिर्द्रविणानि नि यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठअहम्। पशूनाम्। अधिऽपाः। असानि। मयि। पुष्टम्। पुष्टऽपतिः। दधातु। मह्यम्। औदुम्बरः। मणिः। द्रविणानि। नि। यच्छतु ॥३१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
विषय - ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
(अहम्) मैं (पशूनाम्) प्राणियों का (अधिपाः) बड़ा राजा (असानि) हो जाऊँ, (मयि) मुझमें (पुष्टपतिः) पोषण का स्वामी (पुष्टम्) पोषण (दधातु) धारण करे। (मह्यम्) मुझको (औदुम्बरः) संघटन चाहनेवाला (मणिः) प्रशंसनीय [परमेश्वर] (द्रविणानि) अनेक धन (नि) नित्य (यच्छतु) देवे ॥६॥
भावार्थ - मनुष्यों को परमेश्वर की शरण लेकर पुरुषार्थ के साथ अनेक धन प्राप्त करने चाहिए ॥६॥
टिप्पणी -
६−(अहम्) (पशूनाम्) जीवानाम् (अधिपाः) म०२। महाराजः (असानि) भवानि (मयि) (पुष्टम्) पोषणम् (पुष्टपतिः) पोषणस्वामी (दधातु) धारयतु (मह्यम्) (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (मणिः) प्रशंसनीयः परमेश्वरः (द्रविणानि) धनानि (नि) नित्यम् (यच्छतु) ददातु ॥