अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 14
सूक्त - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - विराडास्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
अ॒यमौदु॑म्बरो म॒णिर्वी॒रो वी॒राय॑ बध्यते। स नः॑ स॒निं मधु॑मतीं कृणोतु र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं॒ नि य॑च्छात् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। औदु॑म्बरः। म॒णि। वी॒रः। वी॒राय॑। ब॒ध्य॒ते॒। सः। नः॒। स॒निम्। मधु॑ऽमतीम्। कृ॒णो॒तु॒। र॒यिम्। च॒। नः॒। सर्व॑ऽवीरम्। नि। य॒च्छा॒त् ॥३१.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमौदुम्बरो मणिर्वीरो वीराय बध्यते। स नः सनिं मधुमतीं कृणोतु रयिं च नः सर्ववीरं नि यच्छात् ॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। औदुम्बरः। मणि। वीरः। वीराय। बध्यते। सः। नः। सनिम्। मधुऽमतीम्। कृणोतु। रयिम्। च। नः। सर्वऽवीरम्। नि। यच्छात् ॥३१.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 14
विषय - ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ -
(अयम्) यह (औदुम्बरः) संघटन चाहनेवाला, (मणिः) प्रशंसनीय (वीरः) वीर [परमात्मा] (वीराय) वीर पुरुष के लिये (बध्यते) धारण किया जाता है। (सः) वह (नः) हमारे लिये (मधुमतीम्) ज्ञानयुक्त (सनिम्) लाभ (कृणोतु) करे, (च) और (नः) हमारे लिये (सर्ववीरम्) सबका वीर बनानेवाला (रयिम्) धन (नि यच्छात्) नियत करे ॥१४॥
भावार्थ - जो मनुष्य परमेश्वर के स्थिर कोश और नित्य दान का विचार करके पुरुषार्थ करते हैं, वे स्थिर निधि स्थापित करके सब मनुष्यों को वीर बनाते हैं ॥१४॥
टिप्पणी -
१४−(अयम्) प्रसिद्धः (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (मणिः) प्रशंसनीयः (वीरः) पराक्रमी परमात्मा (वीराय) पराक्रमिणे पुरुषाय (बध्यते) धार्यते (सः) तादृशः (नः) अस्मभ्यम् (सनिम्) लब्धिम् (मधुमतीम्) ज्ञानयुक्ताम् (कृणोतु) करोतु (रयिम्) धनम् (नः) अस्मभ्यम् (सर्ववीरम्) सर्वेषां वीरकरम् (नि यच्छात्) नियतं कुर्यात् ॥