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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 46

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    सूक्त - प्रजापतिः देवता - अस्तृतमणिः छन्दः - षट्पदा भुरिक्शक्वरी सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त

    ऊ॒र्ध्वस्ति॑ष्ठतु॒ रक्ष॒न्नप्र॑माद॒मस्तृ॑ते॒मं मा त्वा॑ दभन्प॒णयो॑ यातु॒धानाः॑। इन्द्र॑ इव॒ दस्यू॒नव॑ धूनुष्व पृतन्य॒तः सर्वा॒ञ्छत्रू॒न्वि ष॑ह॒स्वास्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वः। ति॒ष्ठ॒तु॒। रक्ष॑न्। अप्र॑ऽमादम्। अस्तृ॑तः। इ॒मम्। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। प॒णयः॑। या॒तु॒ऽधानाः॑। इन्द्रः॑ऽइव। दस्यू॑न्‌। अव॑। धू॒नू॒ष्व॒। पृ॒त॒न्य॒तः। सर्वा॑न्। शत्रू॑न्। वि। स॒ह॒स्व॒। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वस्तिष्ठतु रक्षन्नप्रमादमस्तृतेमं मा त्वा दभन्पणयो यातुधानाः। इन्द्र इव दस्यूनव धूनुष्व पृतन्यतः सर्वाञ्छत्रून्वि षहस्वास्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वः। तिष्ठतु। रक्षन्। अप्रऽमादम्। अस्तृतः। इमम्। मा। त्वा। दभन्। पणयः। यातुऽधानाः। इन्द्रःऽइव। दस्यून्‌। अव। धूनूष्व। पृतन्यतः। सर्वान्। शत्रून्। वि। सहस्व। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (अस्तृतः) अटूट [नियम] (अप्रमादम्) बिना भूल (रक्षन्) रक्षा करता हुआ (ऊर्ध्वः) ऊँचा (तिष्ठतु) ठहरे, (इमम् त्वा) इस तुझको (पणयः) कुव्यवहारी, (यातुधानाः) पीड़ा देनेवाले लोग (मा दभन्) न दबावें। (इन्द्रः इव) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् पुरुष] के समान (दस्यून्) लुटेरों को (अव धूनुष्व) हिला दे, और (पृतन्यतः) सेना चढ़ानेवाले (सर्वान्) सब (शत्रून्) शत्रुओं को (वि सहस्व) हरा दे, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥२॥

    भावार्थ - जो मनुष्य नियम के साथ प्रमाद छोड़कर निरन्तर उन्नति करते हैं, वे ही शत्रुओं पर विजय पाते हैं ॥२॥

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