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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 48

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त

    यत्किं चे॒दं प॒तय॑ति॒ यत्किं चे॒दं स॑रीसृ॒पम्। यत्किं च॒ पर्व॑ताया॒सत्वं॒ तस्मा॒त्त्वं रा॑त्रि पाहि नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। किम्। च॒। इ॒दम्। प॒तय॑ति। यत्। किम्। च॒। इ॒दम्। स॒री॒सृ॒पम्। यत्। किम्। च॒। पर्व॑ताय। अ॒सत्व॑म्। तस्मा॑त्। त्वम्। रात्रि॑। पा॒हि॒। नः॒ ॥४८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्किं चेदं पतयति यत्किं चेदं सरीसृपम्। यत्किं च पर्वतायासत्वं तस्मात्त्वं रात्रि पाहि नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। किम्। च। इदम्। पतयति। यत्। किम्। च। इदम्। सरीसृपम्। यत्। किम्। च। पर्वताय। असत्वम्। तस्मात्। त्वम्। रात्रि। पाहि। नः ॥४८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 48; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यत् किम् च) जो कुछ (इदम्) यह (पतयति) उड़ता है, (यत् किम् च) जो कुछ (इदम्) यह (सरीसृपम्) टेढ़ा-टेढ़ा रेंगनेवाला [सर्प आदि] है। (यत् किम् च) और जो कुछ (पर्वताय) पहाड़ पर (असत्वम्) दुष्ट जन्तु [सिंह आदि] है, (तस्मात्) उससे, (त्वम्) तू (रात्रि) हे रात्रि ! (नः) हमें (पाहि) बचा ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य घरों को ऐसा सुडौल बनावें कि रात्रि में सब प्रकार के हिंसक प्राणियों से रक्षा रहे ॥३॥

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