अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 48/ मन्त्र 4
सा प॒श्चात्पा॑हि॒ सा पु॒रः सोत्त॒राद॑ध॒रादु॒त। गो॑पा॒य नो॑ विभावरि स्तो॒तार॑स्त इ॒ह स्म॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठसा। प॒श्चात्। पा॒हि॒। सा। पु॒रः। सा। उ॒त्त॒रात्। अ॒ध॒रात्। उ॒त। गो॒पाय॑। नः॒। वि॒भा॒व॒रि॒। स्तो॒तारः॑। ते॒। इ॒ह॒। स्म॒सि॒ ॥४८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सा पश्चात्पाहि सा पुरः सोत्तरादधरादुत। गोपाय नो विभावरि स्तोतारस्त इह स्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठसा। पश्चात्। पाहि। सा। पुरः। सा। उत्तरात्। अधरात्। उत। गोपाय। नः। विभावरि। स्तोतारः। ते। इह। स्मसि ॥४८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 48; मन्त्र » 4
विषय - रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
[हे रात्रि !] (सा) सो तू (पश्चात्) पीछे से, (सा) सो तू (पुरः) सामने से, (सा) सो तू (उत्तरात्) ऊपर से (उत) और (अधरात्) नीचे से (पाहि) बचा। (विभावरि) हे चमकवाली ! (नः) हमारी (गोपाय) रक्षा कर, हम लोग (इह) यहाँ पर (ते) तेरी (स्तोतारः) स्तुति करनेवाले (स्मसि) हैं ॥४॥
भावार्थ - मनुष्यों को रात्रि में सावधानी के साथ सब ओर से रक्षा का प्रबन्ध रखना चाहिये ॥४॥
टिप्पणी -
४−(सा) पूर्वोक्तलक्षणा त्वम् (पश्चात्) (पाहि) रक्ष (सा) सा त्वम् (पुरः) पुरस्तात् (सा) (उत्तरात्) उपरिदेशात् (अधरात्) अधोदेशात् (उत) अपि च (गोपाय) रक्ष (नः) अस्मान् (विभावरि) म० २। हे दीप्तिमति (स्तोतारः) स्तावकाः (ते) तव (इह) अत्र (स्मसि) स्मः। भवामः ॥