अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
रात्रिं॑रात्रि॒मरि॑ष्यन्त॒स्तरे॑म त॒न्वा व॒यम्। ग॑म्भी॒रमप्ल॑वा इव॒ न त॑रेयु॒ररा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठरात्रि॑म्ऽरात्रिम्। अरि॑ष्यन्तः। तरे॑म। त॒न्वा᳡। व॒यम्। ग॒म्भी॒रम्। अप्ल॑वाःऽइव। न। त॒रे॒युः॒। अरा॑तयः ॥५०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
रात्रिंरात्रिमरिष्यन्तस्तरेम तन्वा वयम्। गम्भीरमप्लवा इव न तरेयुररातयः ॥
स्वर रहित पद पाठरात्रिम्ऽरात्रिम्। अरिष्यन्तः। तरेम। तन्वा। वयम्। गम्भीरम्। अप्लवाःऽइव। न। तरेयुः। अरातयः ॥५०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
विषय - रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(अरिष्यन्तः) बिना कष्ट उठाये हुए (वयम्) हम लोग (तन्वा) अपने शरीर के साथ (रात्रिं रात्रिम्) रात्रि के पीछे रात्रि को (तरेम) पार करें। (अरातयः) वैरी लोग [उसको] (न तरेयुः) न पार करें, (इव) जैसे (अप्लवाः) बिना नाववाले मनुष्य (गम्भीरम्) गहरे [समुद्र] को ॥३॥
भावार्थ - पुरुषार्थी मनुष्य सब विघ्नों को सहकर उन्नति करें, विरोधी आलसी पुरुष सुकर्मों को सिद्ध नहीं कर सकते ॥३॥
टिप्पणी -
३−(रात्रिं रात्रिम्) रात्रिं प्रति रात्रिम् (अरिष्यन्तः) दुःखं न प्राप्नुवन्तः (तरेम) पारं गच्छेम (तन्वा) स्वशरीरेण (वयम्) पुरुषार्थिनः (गम्भीरम्) अगाधं समुद्रम् (अप्लवाः) नौकादिरहिताः (इव) यथा (न) निषेधे (तरेयुः) अतिक्रामेयुः (अरातयः) शत्रवः ॥