अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 5
अप॑ स्ते॒नं वासो॑ गोअ॒जमु॒त तस्क॑रम्। अथो॒ यो अर्व॑तः॒ शिरो॑ऽभि॒धाय॒ निनी॑षति ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑। स्ते॒नम्। वासः॑। गो॒ऽअ॒जम्। उ॒त। तस्क॑रम् ॥ अथो॒ इति॑। यः। अर्व॑तः। शिरः॑। अ॒भि॒ऽधाय॑। निनी॑षति ॥५०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अप स्तेनं वासो गोअजमुत तस्करम्। अथो यो अर्वतः शिरोऽभिधाय निनीषति ॥
स्वर रहित पद पाठअप। स्तेनम्। वासः। गोऽअजम्। उत। तस्करम् ॥ अथो इति। यः। अर्वतः। शिरः। अभिऽधाय। निनीषति ॥५०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 5
विषय - रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
तू (स्तेनम्) चोर को (उत) और (गोअजम्) गौ को हाँक ले जानेवाले (तस्करम्) लुटेरे को (अप वासः) बाहिर बसा दे। (अथो) और भी [उसको], (यः) जो (अर्वतः) घोड़े के (शिरः) शिर को (अभिधाय) बाँधकर (निनीषति) [उसे] ले जाना चाहता है ॥५॥
भावार्थ - जो पुरुष गौ आदि दूध के पशुओं को चुरा ले जावें, और इसलिये कि घोड़े फिर घर को न लौट आवें और न शब्द करें, उनका शिर अर्थात् आँखें और मुख बन्द करके भगा ले जावें, उन्हें देश से निकाल देना चाहिये ॥५॥
टिप्पणी -
५−(अप) दूरे (स्तेनम्) चोरम् (वासः) वस निवासे-णिजन्ताल्लेटि। छान्दसं रूपम्। त्वं वासयः। निवासं देहि (गोअजम्) गो+अज गतिक्षेपणयोः अच्। सर्वत्र विभाषा गोः। पा० ६।१।१२२। इति प्रकृतिभावः। गोः क्षेप्तारं प्रेरकम् (उत) अपि च (तस्करम्) (अथो) अपि च (यः) तस्करः (अर्वतः) अश्वस्य (शिरः) (अभिधाय) बध्वा (निनीषति) अपजिहीर्षति ॥