अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 7
उ॒षसे॑ नः॒ परि॑ देहि॒ सर्वा॑न्रात्र्यना॒गसः॑। उ॒षा नो॒ अह्ने॒ आ भ॑जा॒दह॒स्तुभ्यं॑ विभावरि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒षसे॑। नः॒। परि॑। दे॒हि॒। सर्वा॑न्। रा॒त्रि॒। अ॒ना॒गसः॑ ॥ उ॒षाः। नः॒। अह्ने॑। आ। भ॒जा॒त्। अहः॑। तुभ्य॑म्। वि॒भा॒व॒रि॒ ॥५०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
उषसे नः परि देहि सर्वान्रात्र्यनागसः। उषा नो अह्ने आ भजादहस्तुभ्यं विभावरि ॥
स्वर रहित पद पाठउषसे। नः। परि। देहि। सर्वान्। रात्रि। अनागसः ॥ उषाः। नः। अह्ने। आ। भजात्। अहः। तुभ्यम्। विभावरि ॥५०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 7
विषय - रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(रात्रि) हे रात्रि ! (उषसे) उषा [प्रभातवेला] को (नः) हम (सर्वान्) सब (अनागसः) निर्दोषों को (परि देहि) सौंप। (उषाः) उषा (नः) हमें (अह्ने) दिन को, और (अहः) दिन (तुभ्यम्) तुझको (आ भजात्) देवे, (विभावरि) हे बड़ी चमकवाली ॥७॥
भावार्थ - मनुष्य दिन और राति सदा धर्म के साथ अपनी वृद्धि करें ॥७॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र कुछ भेद से ऊपर आ चुका है-४८।२ ॥ ७−(उषसे) प्रभातवेलायै (नः) अस्मान् (परिदेहि) समर्पय (सर्वान्) (रात्रि) (अनागसः) निर्दोषान् (उषाः) प्रभातवेला (नः) अस्मान् (अह्ने) दिनाय (आभजात्) भज सेवायाम्-लेटि, आडागमः। आभजेत् समन्तात् सेवेत। समर्पयेत्। अन्यत् पूर्ववत्-४८।२ ॥