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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 14
    सूक्त - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त

    तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुतः॒ संभृ॑तं पृषदा॒ज्यम्। प॒शूंस्तांश्च॑क्रे वाय॒व्यानार॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मा॑त्। य॒ज्ञात्। स॒र्व॒ऽहुतः॑। सम्ऽभृ॑तम्। पृ॒ष॒त्ऽआ॒ज्य᳡म्। प॒शून्। तान्। च॒क्रे॒। वा॒य॒व्या᳡न्। आ॒र॒ण्याः। ग्रा॒म्याः। च॒। ये ॥६.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम्। पशूंस्तांश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मात्। यज्ञात्। सर्वऽहुतः। सम्ऽभृतम्। पृषत्ऽआज्यम्। पशून्। तान्। चक्रे। वायव्यान्। आरण्याः। ग्राम्याः। च। ये ॥६.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    (तस्मात्) उस (यज्ञात्) पूजनीय (सर्वहुतः) सब के दानी [अन्न आदि के देनेहारे] [पुरुष परमात्मा] से (पृषदाज्यम्) दही, घी [आदि भोग्य पदार्थ] (संभृतम्) सिद्ध किया गया है। उसने (तान्) उन (पशून्) जीवों [दोपायों, चौपायों] और (वायव्यान्) पवन में रहनेवाले [पक्षी आदियों] को (चक्रे) बनाया, (ये) जो (आरण्याः) वनैले (च) और (ग्राम्याः) ग्राम के रहनेवाले हैं ॥१४॥

    भावार्थ - जिस परमात्मा ने जगत् के हित के लिये सब भोग्य पदार्थ और सब वनैले और घरेलू जीव, जैसे मनुष्य, सिंह, बाघ, गाय, बैल तथा गिद्ध, चील, तोता, मैना, कीट, पतङ्ग आदि बनाये हैं, सब लोग उसकी उपासना से आत्मोन्नति करें ॥१४॥

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