अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 14
ऋषिः - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
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तस्मा॑द्य॒ज्ञात्स॑र्व॒हुतः॒ संभृ॑तं पृषदा॒ज्यम्। प॒शूंस्तांश्च॑क्रे वाय॒व्यानार॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त्। य॒ज्ञात्। स॒र्व॒ऽहुतः॑। सम्ऽभृ॑तम्। पृ॒ष॒त्ऽआ॒ज्य᳡म्। प॒शून्। तान्। च॒क्रे॒। वा॒य॒व्या᳡न्। आ॒र॒ण्याः। ग्रा॒म्याः। च॒। ये ॥६.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम्। पशूंस्तांश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मात्। यज्ञात्। सर्वऽहुतः। सम्ऽभृतम्। पृषत्ऽआज्यम्। पशून्। तान्। चक्रे। वायव्यान्। आरण्याः। ग्राम्याः। च। ये ॥६.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(तस्मात्) उस (यज्ञात्) पूजनीय (सर्वहुतः) सब के दानी [अन्न आदि के देनेहारे] [पुरुष परमात्मा] से (पृषदाज्यम्) दही, घी [आदि भोग्य पदार्थ] (संभृतम्) सिद्ध किया गया है। उसने (तान्) उन (पशून्) जीवों [दोपायों, चौपायों] और (वायव्यान्) पवन में रहनेवाले [पक्षी आदियों] को (चक्रे) बनाया, (ये) जो (आरण्याः) वनैले (च) और (ग्राम्याः) ग्राम के रहनेवाले हैं ॥१४॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने जगत् के हित के लिये सब भोग्य पदार्थ और सब वनैले और घरेलू जीव, जैसे मनुष्य, सिंह, बाघ, गाय, बैल तथा गिद्ध, चील, तोता, मैना, कीट, पतङ्ग आदि बनाये हैं, सब लोग उसकी उपासना से आत्मोन्नति करें ॥१४॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।९०।८ और यजुर्वेद−३१।६ ॥ १४−(तस्मात्) पूर्वोक्तात् पुरुषात् (यज्ञात्) पूजनीयात् (सर्वहुतः) म० १३। सर्वेभ्योऽन्नादिदातुः सकाशात् (संभृतम्) सम्यग् धारितं सम्पादितम् (पृषदाज्यम्) दधिघृतादिभोग्यं वस्तु (पशून्) द्विपदश्चतुष्पदो जीवान् (चक्रे) जनयामास (वायव्यान्) वाय्वृतुपित्रुषसो यत्। पा० ४।२।३१। वायु−यत्। वायुदेवताकान्। वायुभवान् (आरण्याः) अरण्य-अण्। अरण्ये भवाः (ग्राम्याः) ग्रामाद्यखञौ। पा० ४।२।९४। ग्राम−य प्रत्ययः। ग्रामे भवाः (च) (ये) ॥
विषय
पुषदाग्य-संभरण
पदार्थ
१. (तस्मात्) = उस (यज्ञात्) = पूजनीय (सर्वहुत:) = सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले प्रभु से (पृषदाज्यम्) = ['अन्नं वै पृषदाज्यम्, पयः पृषदाग्यम्, पशवो वै पृषदाज्यम्' श०] अन्न, पशु व दूध का (संभृतम्) = हमारे लिए संभरण किया गया है। २. प्रभु ने (तान्) = उन सब (पशून्) = [पश्यन्ति एव] "जो केवल देखते हैं, समझते नहीं' उन पशु-पक्षियों का (चक्रे) = निर्माण किया। (वायव्यान्) = वायु में गति करनेवाले-उड़नेवाले-पक्षियों को बनाया तथा (ये) = जो (आरण्या:) = वन के शेर आदि पशु है (च) = तथा (ग्राम्या:) = ग्राम के गौ-घोड़ा आदि पशु हैं उन सबका निर्माण किया। कोई भी पशु अनुपयोगी नहीं। शेरों के अभाव में मृगों की ही इतनी अधिकता हो जाती कि सब खेतियाँ नष्ट हो जाती। मक्खी का मल भी वमन-निरोध की अचूक ओषधि है, एवं सब पशु-पक्षियों की उपयोगिता द्रष्टव्य है।
भावार्थ
प्रभु ने हमारे जीवन के लिए उपयोगी अन्न व दूध को प्राप्त कराने के लिए वायव्य, ग्राम्य व आरण्य पशु-पक्षियों को जन्म दिया है।
भाषार्थ
(सर्वहुतः) जो सब के द्वारा ग्रहण किया जाता, (तस्मात्) उस (यज्ञात्) पूजनीय परमात्मा से (पृषदाज्यम्) दधि-घृत आदि भोगनेयोग्य वस्तुएँ (सम्भृतम्) सम्यक् उत्पन्न हुई। तथा (ये) जो (वायव्यान्) वायु में रहनेवाले, (आरण्यान् ग्राम्यान् पशून्) वन्य और ग्राम के पशु हैं, (तान्) उन्हें (चक्रे) परमात्मा ने उत्पन्न किया।
टिप्पणी
[सर्वहुतः= सर्व+हु (आदाने)+क्विप्, तुक् (यजु० ३१।६), महर्षि दयानन्द। अभिप्राय यह है कि दधि और घृत यद्यपि पशुदुग्धजन्य हैं, तो भी दूध का दधिरूप में विकृत होना, तथा दधि से घृत प्रकट होना परमेश्वरकृत नियमों पर ही अवलम्बित है। दूध दधि घृत उन्हीं पशुओं से मिलता है, जो अन्तरिक्ष के वायुमण्डल के आश्रय रहनेवाले हैं, और ये पशु अरण्य तथा ग्राम-वासी होते हैं।]
विषय
महान् पुरुष का वर्णन।
भावार्थ
(तस्मात्) उस (यज्ञात्) यज्ञमय, (सर्वहुतः) सर्व व्यापक, सर्वप्रद, एवं सर्वधारक परमेश्वर प्रजापति से (पृषद्-आज्यम्) दधि, घी आदि समस्त भोज्य पदार्थ (सम्-भृतम्) प्राप्त हुआ है। वह ही (तान्) उन नाना प्रकार के (वायव्यान्) वायु के समान तीव्रगामी और (ये आरण्याः) आरण्य, जंगल के वासी, हरिण, सिंह, हस्ती आदि और (ग्राम्याः च) ग्राम के वासी गर्दभ, अश्व, गौ आदि उन सब को (चक्रे) उत्पन्न करता है। अथवा—(सर्वहुतः पृषदाज्यम् संभृतम्) सब के जीवनदाता उस प्रजापति से ही वह ‘पृ-षत्-आज्य’ प्रत्येक ‘पृ’ शरीर में ‘सत्’ व्यापक आज्य = वीर्य विन्दु (संभृतम्) प्राप्त हुआ है। उसी के द्वारा उसने समस्त पशु आदि प्राणियों की सृष्टि की।
टिप्पणी
‘आरण्यान्’ या इति तै० आ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुषसूक्तम्। नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। अनुष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Purusha, the Cosmic Seed
Meaning
From that cosmic yajna with total input of Prakrti and the immanent will of Purusha was prepared and received the sacred ghrta, living liquids of life forms. That yajna and yajamana created all the animals, birds of the air, animals of the forest and those of the village for domestic use.
Translation
From that cosmic sacrifice, in which all things have been offered as oblations, milk and curd (sustaining food) are obtained. Thereon He makes creatures that fly in air, and animals wild and domestic. (Yv. XXXI.6)
Translation
From that all-worshipped Yajna comes out curd, ghee etc. This Yajna created animals which fly in wind, which are wild and which are domestic.
Translation
Curd and clarified butter have been well-provided by the Adorable God, Who is respected by all. He created all those animals, that live in air, forests and in the villages.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।९०।८ और यजुर्वेद−३१।६ ॥ १४−(तस्मात्) पूर्वोक्तात् पुरुषात् (यज्ञात्) पूजनीयात् (सर्वहुतः) म० १३। सर्वेभ्योऽन्नादिदातुः सकाशात् (संभृतम्) सम्यग् धारितं सम्पादितम् (पृषदाज्यम्) दधिघृतादिभोग्यं वस्तु (पशून्) द्विपदश्चतुष्पदो जीवान् (चक्रे) जनयामास (वायव्यान्) वाय्वृतुपित्रुषसो यत्। पा० ४।२।३१। वायु−यत्। वायुदेवताकान्। वायुभवान् (आरण्याः) अरण्य-अण्। अरण्ये भवाः (ग्राम्याः) ग्रामाद्यखञौ। पा० ४।२।९४। ग्राम−य प्रत्ययः। ग्रामे भवाः (च) (ये) ॥
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