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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
    115

    च॒न्द्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत। मुखा॒दिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒न्द्रमाः॑। मन॑सः। जा॒तः। चक्षोः॑। सूर्यः॑। अ॒जा॒य॒त॒। मुखा॑त्। इन्द्रः॑। च॒। अ॒ग्निः। च॒। प्रा॒णात्। वा॒युः। अ॒जा॒य॒त॒ ॥६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चन्द्रमाः। मनसः। जातः। चक्षोः। सूर्यः। अजायत। मुखात्। इन्द्रः। च। अग्निः। च। प्राणात्। वायुः। अजायत ॥६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [इस पुरुष के-मन्त्र ६] (मनसः) मन [मनन सामर्थ्य] से (चन्द्रमाः) चन्द्रलोक (जातः) उत्पन्न हुआ, (चक्षोः) नेत्र से (सूर्यः) सूर्यमण्डल (अजायत) उत्पन्न हुआ। (मुखात्) मुख से (इन्द्रः) बिजुली (च) और (अग्निः) आग (च) और (प्राणात्) प्राण से (वायुः) पवन (अजायत) उत्पन्न हुआ ॥७॥

    भावार्थ

    चन्द्रमा से मनन शक्ति और पदार्थपुष्टि और सूर्य से नेत्र में ज्योति होती है, मुख्य ज्योतिर्मय और भक्षण सामर्थ्यवाला होने से मुख का संबन्ध बिजुली और आग से, और जीवन का संबन्ध होने से प्राण का सम्बन्ध वायु से है, ऐसा मनुष्यों को ईश्वर की रची सृष्टि में जानना चाहिये ॥७॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।१३ और यजुर्वेद ३१।१२ ॥ ७−(चन्द्रमाः) आह्लादस्य निर्माता। चन्द्रलोकः (मनसः) मननसामर्थ्यात् (जातः) उत्पन्नः (चक्षोः) भृमृशीङ्तॄ०। उ० १।७। चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च−उ प्रत्ययः। दर्शनशीलाद् नेत्रात् (सूर्यः) लोकानां प्रेरकः प्रकाशमानः सूर्यलोकः (अजायत) उदपद्यत (मुखात्) ज्योतिर्मयाद् भक्षणशीलादिन्द्रियविशेषात् (इन्द्रः) विद्युत् (च) (अग्निः) पावकः (च) (प्राणात्) जीवनसाधकात् पवनात् (वायुः) पवनः (अजायत) ॥

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    विषय

    चन्द्र-सूर्य-इन्द्र-अनि व वायु

    पदार्थ

    १. ब्रह्मज्ञानी पुरुष (मनस:) = मन से (चन्द्रमा: जात:) = चन्द्र हो जाता है। 'चन्द्रमा' आहाद का प्रतीक है। यह सदा प्रसन्न मनवाला होता है। (चक्षो:) = चक्षु से यह (सूर्यः अजायत) = सूर्य हो जाता है। सूर्य जैसे प्रकाश के द्वारा अन्धकार को नष्ट करता है, उसीप्रकार यह व्यक्ति अपनी चक्षु से अज्ञानान्धकार को विनष्ट करनेवाला 'विचक्षण' बनता है-प्रत्येक वस्तु को बारीकी से देखता हुआ यह तत्त्वद्रष्टा होता है। २. यह (मुखात्) = मुख से (इन्द्रः च अग्नि: च) = जितेन्द्रिय व आगे और आगे ले-चलनेवाला होता है। मुख से जितेन्द्रिय बनने का भाव यह है कि 'स्वाद के लिए खाता नहीं और निन्दात्मक शब्द बोलता नहीं'। मुख से अग्नि बनने का भाव यह है कि इसके मुख से उच्चारित शब्द लोगों में परस्पर प्रेम के भाव को पैदा करते हैं और वैर-विरोध का छेदन करते हैं। इसप्रकार ही यह प्रेरणा देता हुआ लोगों को आगे ले-चलता है। यह (प्राणात्) = प्राणों से (वायुः अजायत) = वायु हो जाता है-निरन्तर क्रियाशील होता हुआ सब बुराइयों का संहार करता है।

    भावार्थ

    ब्रह्मज्ञानी पुरुष सदा प्रसन्न, विक्षण, जितेन्द्रिय, अग्रगतिक, प्रेरक व क्रियाशील' होता है।

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    भाषार्थ

    (मनसः) मन को लक्ष्य करके (चन्द्रमाः) चान्द (अजायत) प्रादुर्भूत हुआ। (चक्षोः) चक्षु को लक्ष्य करके (सूर्यः) सूर्य (अजायत) प्रादुर्भूत हुआ। (मुखात्) मुख को लक्ष्य करके (इन्द्रः च अग्निः च) इन्द्र और अग्नि प्रादुर्भूत हुए। (प्राणात्) प्राण को लक्ष्य करके (वायुः) वायु (अजायत) प्रादुर्भूत हुई।

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    विषय

    महान् पुरुष का वर्णन।

    भावार्थ

    प्रजापति के ब्रह्माण्डमय विराट शरीर का वर्णन करते हैं। (चन्द्रमाः) चन्द्र (मनसः) मन से (जातः) कल्पना किया गया है अर्थात् चन्द्र उस विराट् शरीर के मन या मनन सामर्थ्य या हृदय खण्ड के समान है। (चक्षोः सूर्यः अजायत) चक्षु से सूर्य बना। अर्थात् चक्षु के स्थान में सूर्य को कल्पित लिया। (मुखात् इन्द्रः च अग्निः च) मुखसे इन्द्र, अर्थात् विद्युत् और अग्नि दो को कल्पित किया गया। (प्राणाद् वायुः अजायत) और प्राण, घ्राण इन्द्रिय से वायु अर्थात् प्राण के स्थान में वायु को कल्पित किया। मानो उस विराट् शरीर में चन्द्र मन था, सूर्य आंख थी, इन्द्र और अग्नि, मुख के दो जबाड़े थे, वायु रूप नासिकागत प्राण था।

    टिप्पणी

    (तृ० च०) ‘श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निर जायत’ इति यजु०। (द्वि०) ‘चक्षुषोरधिसूर्यः’। नसो र्वायुश्चप्राणश्च मुखादग्निर जायत इति क० ब्रा०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुरुषसूक्तम्। नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। अनुष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purusha, the Cosmic Seed

    Meaning

    The moon is born of the cosmic mind, the sun is born of the eye, fire and energy are born of the mouth, and the wind is born of the breath.

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    Translation

    The moon is created from His mind and is sun is born from His eye. Electricity and fire from (His) mouth and the wind is born from His vital breath. (Yv. XXXI.12. Vari.)

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    Translation

    The moon emerged from His mind and the sun was born from His eyes. The electricity and fire from His mouth and The Air Was born His breath.

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    Translation

    The moon was created from His mental power. The Sun was born from His power of perception. The fire and electricity are brought to light from His all-consuming power. The air was His vitalising and life-infusing power.

    Footnote

    cf. Rig, 10.90.13', Yajur, 31.12. The various powers of the All-Pervading Creator are supposed to create various objects of nature, having similar qualities.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।१३ और यजुर्वेद ३१।१२ ॥ ७−(चन्द्रमाः) आह्लादस्य निर्माता। चन्द्रलोकः (मनसः) मननसामर्थ्यात् (जातः) उत्पन्नः (चक्षोः) भृमृशीङ्तॄ०। उ० १।७। चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च−उ प्रत्ययः। दर्शनशीलाद् नेत्रात् (सूर्यः) लोकानां प्रेरकः प्रकाशमानः सूर्यलोकः (अजायत) उदपद्यत (मुखात्) ज्योतिर्मयाद् भक्षणशीलादिन्द्रियविशेषात् (इन्द्रः) विद्युत् (च) (अग्निः) पावकः (च) (प्राणात्) जीवनसाधकात् पवनात् (वायुः) पवनः (अजायत) ॥

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