अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
ऋषिः - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
107
ताव॑न्तो अस्य महि॒मान॒स्ततो॒ ज्यायां॑श्च॒ पूरु॑षः। पादो॑ऽस्य॒ विश्वा॑ भू॒तानि॑ त्रि॒पाद॑स्या॒मृतं॑ दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठताव॑न्तः। अ॒स्य॒। म॒हि॒मानः॑। ततः॑। ज्याया॑न्। च॒। पुरु॑षः। पादः॑। अ॒स्य॒। विश्वा॑। भू॒तानि॑। त्रि॒ऽपात्। अ॒स्य॒। अ॒मृत॑म्। दि॒वि ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तावन्तो अस्य महिमानस्ततो ज्यायांश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठतावन्तः। अस्य। महिमानः। ततः। ज्यायान्। च। पुरुषः। पादः। अस्य। विश्वा। भूतानि। त्रिऽपात्। अस्य। अमृतम्। दिवि ॥६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस [पुरुष] की (तावन्तः) उतनी [पूर्वोक्त] (महिमानः) महिमाएँ हैं, (च) और (पुरुषः) यह पुरुष [परिपूर्ण परमात्मा] (ततः) उन [महिमाओं] से (ज्यायान्) अधिक बड़ा है। (अस्य) इस [ईश्वर] का (पादः) पाव [चौथायी अंश] (विश्वा) सब (भूतानि) चराचर पदार्थ हैं, और (अस्य) इस [ईश्वर] का (पादः) पाव [चौथायी अंश] (विश्वा) सब (भूतानि) चराचर पदार्थ हैं, और (अस्य) इस [परमेश्वर] का (अमृतम्) अविनाशी महत्त्व (दिवि) [उसके] प्रकाशस्वरूप में (त्रिपात्) तीन पाव [तीन चौथाई] वाला है ॥३॥
भावार्थ
जो ईश्वर के चार अंश माने जावें तो अनेक सूर्य, पृथिवी आदि चराचर विचित्र रचनावाला इतना बड़ा जगत् ईश्वर के सामर्थ्य का एक चौथाई अर्थात् बहुत थोड़ा अंश है और उसका अविनाशी सामर्थ्य जगत् की अपेक्षा तीन चौथायी अर्थात् बहुत महान् है ॥३॥
टिप्पणी
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।३, यजुर्वेद−३१।३, सामवेद−पू० ६।१३।६ ॥ ३−(तावन्तः) पूर्वोक्तपरिमाणाः (अस्य) पुरुषस्य (महिमानः) महत्त्वानि (ततः) तेभ्यो महिमभ्यः (ज्यायान्) प्रवृद्धतरः (पुरुषः) म० १। परिपूर्णः परमेश्वरः (पादः) एकोंऽशः (अस्य) पुरुषस्य (विश्वा) सर्वाणि (भूतानि) सत्तावन्ति पदार्थजातानि (त्रिपात्) संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। इति पादस्य लोपो बहुव्रीहौ। त्रयः पादा अंशा यस्य तत् (अस्य) पुरुषस्य (अमृतम्) नाशरहितं महत्त्वम् (दिवि) प्रकाशस्वरूपे ॥
विषय
लोक - लोकान्तर में प्रभु की महिमा की अभिव्यक्ति
पदार्थ
१. (तावन्तः) = उतने, अर्थात् ये जितने भी लोक-लोकान्तर हैं, वे (अस्य) = इस प्रभु के (महिमानः) = महिमामात्र हैं। इन सबमें प्रभु की महिमा प्रकट हो रही है (च) = और वे (पूरुषा:) = इस ब्रह्माण्डरूप पुरी में निवास करनेवाले प्रभु तो (ततः) = उस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से (ज्यायान्) = बहुत बड़े हैं । २.( विश्वा भूतानि) = सब प्राणी व सब पृथिव्यादि लोक (अस्य पादः) = इस प्रभु के चतुर्थांशमात्र हैं। (अस्य त्रिपात्) = इसके तीन अंश तो (दिवि अमृतम्) = प्रकाशमयरूप में अमृत हैं, अर्थात् उन तीन अंशों में यह उत्पत्ति व विनाश का क्रम नहीं चल रहा यह सब जन्म-मरण का क्रम प्रभु के एक देश में ही हो रहा है।
भावार्थ
भावार्थ - ये सब लोक लोकान्तर प्रभु की महिमा को प्रकट कर रहे हैं। प्रभु इनसे महान् हैं। ये सब तो प्रभु के एकदेश में ही हैं। प्रभु के तीन अंश तो इस सब जन्म-मरण के स्थल न बनकर प्रकाशमय ही हैं।
भाषार्थ
(तावन्तः) उतने अर्थात् भूमि और दशाङ्गुल समग्र जगत्, अशन और अनशन वाले प्राणी अप्राणी (अस्य) इस परमेश्वर के (महिमानः) महत्व के सूचक हैं। (पूरुषः) परिपूर्ण परमेश्वर (ततः) उन सब से (ज्यायान्) अति प्रशंसित और बड़ा है। (विश्वा भूतानि) भूत भौतिक सब पदार्थ (अस्य) इस परमेश्वर के (पादः) एक अंशरूप हैं। और (अस्य) इस जगत्स्रष्टा के (त्रिपाद्) तीन अंश, (अमृतम्) नाशरहित महिमा वाले, (दिवि) परमेश्वर के द्योतनात्मक अपने स्वरूप में हैं।
टिप्पणी
[अमृतम्= मरणधर्मा जगत् के सम्पर्क से रहित। भावार्थ— “यह सब सूर्य चन्द्र तथा लोक लोकान्तर चराचर जितना जगत् है, वह सब चित्रविचित्र रचना के अनुमान से परमेश्वर के महत्व को सिद्ध कर, उत्पति स्थिति और प्रलयरूप से तीन काल में घटने-बढ़ने से भी परमेश्वर के एक चतुर्थांश में ही रहता है, किन्तु इस ईश्वर के चौथे अंश की भी अवधि को नहीं पाता, और इस ईश्वर के सामर्थ्य के तीन अंश अपने अविनाशी मोक्षस्वरूप में सदैव रहते हैं। इस कथन से उस ईश्वर का अनन्तपन नहीं बिगड़ता, किन्तु जगत् की अपेक्षा उसका महत्त्व और जगत् का न्यूनत्व जाना जाता है।” (यजुः० ३१.३)। महर्षिदयानन्द भाष्य।]
विषय
महान् पुरुष का वर्णन।
भावार्थ
(अस्य) इस महान् परमेश्वर के (तावन्तः महिमानः) वे सब लोक लोकान्तर और उसमें होने वाले बड़े बड़े कार्य सब उसकी असंख्य ‘महिमा’, महान् शक्ति के प्रदर्शनमात्र हैं (पूरुषः) विशाल ब्रह्माण्डपुरी से व्यापक वह परमेश्वर, महान् आत्मा (ततो ज्यायान् च) उन सब से कहीं बड़ा है। (विश्वा भूतानि) ये समस्त भूत, चर अचर प्राणि, एवं भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पंचभूत एवं उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ (अस्य) इस महान् पुरुष के (पादः) एक अंश हैं। (अस्य) उसके (त्रिपात्) शेष तीन अंश (दिवि) द्यौ, परम तेजोमय स्वरूप में (अमृतम्) अमृतमय, परमसुखमय, मोक्षरूप हैं।
टिप्पणी
(प्र० द्वि०) एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुषः इति ऋ० यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुषसूक्तम्। नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। अनुष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Purusha, the Cosmic Seed
Meaning
So great are the grandeur and glories of It, and yet the Purusha is greater than all that. The entire worlds of existence are but one fourth of It. Three parts of Its mystery are in the transcendental heaven of immortality beyond the universe.
Translation
That much are His majesty and Purusa (cosmic man) is far greater than these. All existing things are only a quarter part of His being; other three quarters are immortal in heaven. (Yv. XXXI.3. Vari.)
Translation
So grand is His grandeur and the Purusha, is even greater than that, all these creatures and creations form one fourth of His grandeur and three-fourths are in immortality and excellence of blessed-ness.
Translation
So mighty is His grandeur, but far greater than this is the All-pervading God. All the worlds are but a part of Him. Three-fourths of Him exist as Immortal Resplendent Glory beyond the universe.
Footnote
cf. Rig, 10.90.3, Yajur, 31.3.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।३, यजुर्वेद−३१।३, सामवेद−पू० ६।१३।६ ॥ ३−(तावन्तः) पूर्वोक्तपरिमाणाः (अस्य) पुरुषस्य (महिमानः) महत्त्वानि (ततः) तेभ्यो महिमभ्यः (ज्यायान्) प्रवृद्धतरः (पुरुषः) म० १। परिपूर्णः परमेश्वरः (पादः) एकोंऽशः (अस्य) पुरुषस्य (विश्वा) सर्वाणि (भूतानि) सत्तावन्ति पदार्थजातानि (त्रिपात्) संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। इति पादस्य लोपो बहुव्रीहौ। त्रयः पादा अंशा यस्य तत् (अस्य) पुरुषस्य (अमृतम्) नाशरहितं महत्त्वम् (दिवि) प्रकाशस्वरूपे ॥
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