अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 15
ऋषिः - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
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स॒प्तास्या॑सन्परि॒धय॒स्त्रिः स॒प्त स॒मिधः॑ कृ॒ताः। दे॒वा यद्य॒ज्ञं त॑न्वा॒ना अब॑ध्न॒न्पुरु॑षं प॒शुम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त। अ॒स्य॒। आ॒स॒न्। प॒रि॒ऽधयः॑। त्रिः। स॒प्त। स॒म्ऽइधः॑। कृ॒ताः। दे॒वाः। यत्। य॒ज्ञम्। त॒न्वा॒नाः। अब॑ध्नन्। पुरु॑षम्। प॒शुम् ॥६.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त। अस्य। आसन्। परिऽधयः। त्रिः। सप्त। सम्ऽइधः। कृताः। देवाः। यत्। यज्ञम्। तन्वानाः। अबध्नन्। पुरुषम्। पशुम् ॥६.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब कि (यज्ञम्) [संसार रूप] यज्ञ को (तन्वानाः) फैलाये हुए (देवाः) विद्वानों ने (पशुम्) दर्शनीय (पुरुषम्) पुरुष [पूर्ण परमात्मा] को (अबध्नन्) [हृदय में] बाँधा, [तब] (सप्त) सात [तीन काल, तीन लोक अर्थात् सृष्टि स्थिति और प्रलय और एक जीवात्मा] (अस्य) इस [संसार रूप यज्ञ] के (परिधयः) घेरे समान (आसन्) थे, और (त्रिःसप्त) तीन बार सात [इक्कीस अर्थात् पाँच सूक्ष्म भूत, पाँच स्थूल भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक अन्तःकरण] (समिधः) समिधाएँ [काष्ठ घृत आदि के समान] (कृताः) किये गये ॥१५॥
भावार्थ
जब विद्वान् लोग परमात्मा का ध्यान करते हुए संसार को यज्ञसमान मानें, तो जैसे यज्ञ के लिये वेदी वा हवनकुण्ड और काष्ठ घृत आदि सामग्री आवश्यक हैं, वैसे ही संसार में सृष्टि के लिये मन्त्रोक्त काल आदि सब पदार्थ आवश्यक होते हैं ॥१५॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।९०।१५। और यजुर्वेद ३१।१५ ॥ १५−(सप्त) कालत्रयेण, लोकत्रयेण अर्थात् सृष्टिस्थितिप्रलयेन सह जीवात्मा (अस्य) यज्ञस्य (आसन्) (परिधयः) परितः सर्वतो धीयन्ते ये ते। गोलमण्डलस्य परितो वेष्टनरूपाः (त्रिःसप्त) त्रिवारं सप्त, एकविंशतिसंख्याकाः। पञ्च सूक्ष्मभूतानि पञ्च स्थूलभूतानि, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, एकमन्तःकरणं चेति (समिधः) काष्ठघृतादिसामग्रीभूताः (कृताः) निष्पादिताः (देवाः) विद्वांसः (यत्) यदा (यज्ञम्) संसाररूपं यज्ञम् (तन्वानाः) विस्तृणन्तः (अबध्नन्) मनसि धारितवन्तः (पुरुषम्) पूर्णं परमात्मानम् (पशुम्) दर्शनीयम् ॥
विषय
सात परिधियाँ, इक्कीस समिधाएँ
पदार्थ
१. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यत) = जब (यज्ञं तन्वाना:) = प्रभु से सम्बन्ध को विस्तृत करते हुए (पुरुषम्) = अतिशयित पौरुषवाले (पशुम्) = [कामः पशुः क्रोध पशुः] काम-क्रोधरूप पशु को (अबध्नन्) = बाँध लेते हैं-अपने वशीभूत कर लेते हैं तब (अस्य) = इस काम-क्रोधरूप पशु का बन्धन करनेवाले साधक की (सप्त) = सात (परिधयः) = परिधियाँ (आसन) = होती हैं। इस साधक के 'दो मात्र भी उल्लंघन नहीं करती। २. इसी का यह परिणाम होता है कि (त्रि:सप्त) = इक्कीस (समिधः) = शक्तियों की दीप्तियाँ (कृता:) = की जाती हैं। काम-क्रोध आदि के नियमन से शक्तियों का दीपन स्वभावत: होता ही है। काम-क्रोध ही तो शक्तियों को क्षीण करते हैं। इनके नियमन से शक्तियों का दीपन होता है।
भावार्थ
प्रभु के सम्पर्क से हम काम-क्रोध का नियमन कर पाते हैं। उस समय मर्यादित जीवनबाले बनकर हम दीसशक्तियोंवाले होते हैं।
भाषार्थ
(यत्) जिस (यज्ञम्) मानस-ज्ञानयज्ञ तथा ध्यानयज्ञ को (तन्वानाः) विस्तृत करते हुए (देवाः) ध्यानी तथा विद्वान् लोग (पशुम्) जाननेयोग्य तथा सर्वद्रष्टा (पुरुषम्) परमात्मा को हृदय में (अबध्नन्) बांधते हैं, (अस्य) इस ज्ञानयज्ञ तथा ध्यानयज्ञ के (सप्त) सात गायत्री आदि छन्द (परिधयः) सब ओर से धारण-पोषण करनेवाले (आसन्) हैं। (त्रिः सप्त) इक्कीस अर्थात् प्रकृति, महत्तत्व, अहङ्कार, पांच सूक्ष्मभूत, पांच स्थूलभूत, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और सत्त्व, रजस, तमस्, ये तीन गुण (समिधः) इस यज्ञ के सामग्रीरूप (कृताः) किये हैं, साधनरूप किये हैं।
टिप्पणी
[इक्कीस समिधाएँ महषि दयानन्द द्वारा उपर्युक्त दर्शाई गईं हैं।]
विषय
महान् पुरुष का वर्णन।
भावार्थ
(देवाः) देव, विद्वान् योगीजन (यद्) जब (यज्ञं तन्वानाः) यज्ञ, ज्ञानमय उपासना को करते हुए (पशुम्) दर्शनयोग्य, या सर्वद्रष्टा (पुरुषम्) देह और ब्रह्माण्ड में व्यापक आत्मा को (अबध्नन्) समाधि द्वारा साक्षात् करते हैं तो देखते हैं कि (अस्य) उसकी (सप्त परिधयः) सात परिधि, उसको सब ओर से बांधने वाले या घेरने वाले पदार्थ हैं और (त्रिः सप्त समिधः कृताः) तीन साते, इक्कीस पदार्थ उस यज्ञ के (सम् इधः) उत्तम रीति से प्रकाशक (कृतः) बनाये गये हैं। सात परिधियें—गायत्री आदि सात छन्द, यज्ञ में आहवनीय की तीन परिधि, उत्तर वेदि की तीन और सातवां आदित्य। आत्मवाद में—पृथिवी, अप तेज, वायु, आकाश, मन और बुद्धि, और शरीर योग में मांस त्वचा, मेद, अस्थि, शुक्र, शोणित, मज्जा ये सात धातुएं। २१ समिधें १२ मास, ५ ऋतुएं और आदित्य। आध्यात्म में—५ महाभूत, ५ तन्मात्रा; ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय, और मन। ब्रह्माण्ड में प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, ५ महाभूत, ५ सूक्ष्मभूत, ३ गुण, ५ ज्ञानेन्द्रिय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुषसूक्तम्। नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। अनुष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Purusha, the Cosmic Seed
Meaning
Seven are the bounds of the vedi of cosmic yajna, thrice seven, twenty-one, are the samidhas, fuel sticks, ordained and offered into the yajna fire. This is what they see when the sages enact the yajna within and concentrate on the Purusha, the universal observer whose presence they crystallise and fix upon in the soul for direct realisation. Note: Seven bounds of the vedi are the seven chhandas or metrical compositions of the Veda. Twenty one samidhas are: Prakrti or potential material cause of the universe, Mahat or material cause actualised, Ahankara or individualised identity of the universe as the blue-print, five subtle elements, five gross elements, five senses and three qualitative orders of Prakrti, i.e., Sattva, Rajas and Tamas. The word ‘Pashu’ means ‘the seer’, not the animal.
Translation
Seven are the enclosing pillars and thrice-seven the pieces of fire-wood, when the bounties of Nature tie up the cosmic man as an offering. (Yv. XXXI.15).
Translation
When the cosmic elements spreading out this Yajna bound the Purusha, iu this Yajnra as Pashu, most santient being the seven vedicmetres are made its Paridhis and three times seven elementary substances are made the fuels.
Translation
There are seven circumscribing limits and twenty-one kinds of fuel of the great sacrifice, in the vast performance whereof, the learned persons devoutly concentrate upon the Omniscient and the Knowable God.
Footnote
cf. Rig, 10.90.15, Yajur, 31.65 Seven limits—seven chhandas (metres): or seven Dhatus in the body i.e., Ras, Rakta, mansa, meda, asthi, majja, virya; or five elements, mana and buddhi. 21 fuels: प्रकृति, महतत्व, अहंकार, 5 महाभूत, 5 सूक्ष्मभूत, 5 ज्ञानेन्द्रिय, 3 'गुण' or अध्यात्म: 5 तन्मात्र, 5 महाभूत, 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेंद्रिय, मन 1 or 12 मास, 5 ऋतु, 3 लोक और आदित्य ।
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।९०।१५। और यजुर्वेद ३१।१५ ॥ १५−(सप्त) कालत्रयेण, लोकत्रयेण अर्थात् सृष्टिस्थितिप्रलयेन सह जीवात्मा (अस्य) यज्ञस्य (आसन्) (परिधयः) परितः सर्वतो धीयन्ते ये ते। गोलमण्डलस्य परितो वेष्टनरूपाः (त्रिःसप्त) त्रिवारं सप्त, एकविंशतिसंख्याकाः। पञ्च सूक्ष्मभूतानि पञ्च स्थूलभूतानि, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, एकमन्तःकरणं चेति (समिधः) काष्ठघृतादिसामग्रीभूताः (कृताः) निष्पादिताः (देवाः) विद्वांसः (यत्) यदा (यज्ञम्) संसाररूपं यज्ञम् (तन्वानाः) विस्तृणन्तः (अबध्नन्) मनसि धारितवन्तः (पुरुषम्) पूर्णं परमात्मानम् (पशुम्) दर्शनीयम् ॥
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