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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
    सूक्त - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
    34

    वि॒राडग्रे॒ सम॑भवद्वि॒राजो॒ अधि॒ पूरु॑षः। स जा॒तो अत्य॑रिच्यत प॒श्चाद्भूमि॒मथो॑ पु॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽराट्। अग्ने॑। सम्। अ॒भ॒व॒त्। वि॒ऽराजः॑। अधि॑। पुरु॑षः। सः। जा॒तः। अति॑। अ॒रि॒च्य॒त॒। प॒श्चात्। भूमि॑म्। अथो॒ इति॑। पु॒रः ॥६.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विराडग्रे समभवद्विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽराट्। अग्ने। सम्। अभवत्। विऽराजः। अधि। पुरुषः। सः। जातः। अति। अरिच्यत। पश्चात्। भूमिम्। अथो इति। पुरः ॥६.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 9
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    हिन्दी (1)

    विषय

    सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्रे) पहिले [सृष्टि की आदि में] (विराट्) विराट् [विविध पदार्थों से विराजमान ब्रह्माण्ड] (सम्) यथाविधि (अभवत्) हुआ, (विराजः) विराट् [उस ब्रह्माण्ड] से (अधि) ऊपर [अधिष्ठाता होकर] (पुरुषः) पुरुष [पूर्ण परमात्मा] [प्रकट हुआ]। (सः) वह [पुरुष] (जातः) प्रकट होकर (भूमिम्) भूमि [अर्थात् सब सृष्टि से] (पश्चात्) पीछे को (अथो) और भी (पुरः) आगे को (अति) लाँघकर (अरिच्यत) बढ़ गया ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा ही इस सब विद्यमान सृष्टि का अधिष्ठाता है, वह अनादि अनन्त पुरुष सृष्टि के पीछे और पहिले भी विराजमान रहता है ॥९॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।५, यजुर्वेद−३१।५, साम० पू० ६।१३।७ ॥ ९−(विराट्) विविधैः पदार्थै राजते प्रकाशते स विराड् ब्रह्माण्डरूपः संसारः (अग्रे) सृष्ट्यादौ (सम्) सम्यक् (अभवत्) (विराजः) तस्माद् ब्रह्माण्डात् (अधि) उपरि। अधिष्ठाता सन् (पुरुषः) पूर्णः परमात्मा (सः) पुरुषः (जातः) प्रादुर्भूतः (अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य (अरिच्यत) अधिकोऽभवत् (पश्चात्) सृष्टिपश्चात् (भूमिम्) सर्वसृष्टिम् (अथो) अपि च (पुरः) पुरस्तात्। सृष्टिपूर्वम् ॥

    इंग्लिश (1)

    Subject

    Purusha, the Cosmic Seed

    Meaning

    First arose Virat, the cosmic Idea, the blue-print in terms of Prakrti, the one, and diverse of forms, the existential Purusha. The Purusha, cosmic soul, manifests in the Virat and abides sovereign in and over it. Though manifested, It exceeds, transcends, and then creates the universe and the world regions for forms of existence.

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।५, यजुर्वेद−३१।५, साम० पू० ६।१३।७ ॥ ९−(विराट्) विविधैः पदार्थै राजते प्रकाशते स विराड् ब्रह्माण्डरूपः संसारः (अग्रे) सृष्ट्यादौ (सम्) सम्यक् (अभवत्) (विराजः) तस्माद् ब्रह्माण्डात् (अधि) उपरि। अधिष्ठाता सन् (पुरुषः) पूर्णः परमात्मा (सः) पुरुषः (जातः) प्रादुर्भूतः (अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य (अरिच्यत) अधिकोऽभवत् (पश्चात्) सृष्टिपश्चात् (भूमिम्) सर्वसृष्टिम् (अथो) अपि च (पुरः) पुरस्तात्। सृष्टिपूर्वम् ॥

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